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आगम सूत्र ३६, छेदसूत्र-३, 'व्यवहार'
उद्देशक/सूत्र यह 'सच्ची प्रतिज्ञा व्यवहार'' है । यानि कि अपड़िसेवी को अपड़िसेवी और पड़िसेवी को पड़िसेवी करना । सूत्र-६०
जो साधु अपने गच्छ से नीकलकर मोह के उदय से असंयम सेवन के लिए जाए । राह में चलते हुए उसके साथ भेजे गए साधु उसे उपशान्त करे तब शुभ कर्म के उदय से असंयम स्थान सेवन किए बिना फिर उसी गच्छ में आना चाहे तब उसने असंयम स्थान सेवन किया या नहीं ऐसी चर्चा स्थविर में हो तब साथ गए साधु को पूछे, हे आर्य! वो दोष का प्रतिसेवी है या अप्रतिसेवी ? यदि वो कहे कि उसने दोष का सेवन नहीं किया तो प्रायश्चित्त न दे । यदि वो कहे कि दोष सेवन किया है तो प्रायश्चित्त दे । वो साधु जिस प्रकार बोले इस प्रकार निश्चय ग्रहण करना । शिष्य पूछता है कि हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा? तब गुरु उत्तर देते हैं कि, 'सच्ची प्रतिज्ञा व्यवहार' इस प्रकार है। सूत्र - ६१
एकपक्षी यानि एक गच्छवर्ती साध को आचार्य-उपाध्याय कालधर्म पाए तब गण की प्रतीति के लिए यदि पदवी के योग्य कोई न मिले तो ईत्वर यानि कि अल्पकाल के लिए दूसरों को उस पदवी के लिए स्थापन करना।
सूत्र-६२
कईं पड़िहारी (प्रायश्चित्त सेवन करनेवाले) और कईं अपड़िहारी यानि कि दोष रहित साधु इकटे बसना चाहे तो वैयावच्च आदि की कारण से एक, दो, तीन, चार, पाँच या छह मास साथ रहे तो साथ आहार करे या न करे, उसके बाद एक मास साथ में आहार करे । (वृत्तिगत विशेष) स्पष्टीकरण इस यह है कि जो पड़िहारी की वैयावच्च करते हैं ऐसे अपड़िहारी साथ आहार करे लेकिन जो वैयावच्च नहीं करते वो साथ में आहार न करे । वैयावच्चवाले भी तब पूरा हो तब तक ही सहभोजी रहे, या ज्यादा से एक मास साथ रहे। सूत्र-६३
परिहार कल्पस्थिति में रहे (यानि प्रायश्चित्त वहन करनेवाले) साधु को (अपने आप) अशन, पान, खादिम, स्वादिम देना या दिलाना न कल्पे । यदि स्थविर आज्ञा दे कि हे आर्य ! तुम यह आहार उस परिहारी को देना या दिलाना तो देना कल्पे यदि स्थविर की आज्ञा हो तो परिहारी साधु को विगई लेना कल्पे । सूत्र-६४
परिवार कल्पस्थित साधु स्थविर की वैयावच्च करते हो तब (अपने आहार अपने पात्र में और स्थविर का आहार स्थविर के पात्र में ऐसे अलग-अलग लाए) पड़िहारी अपना आहार लाकर बाहर स्थविर की वैयावच्च के लिए फिर से जाते हैं तब (यदि) स्थविर कहे कि हे आर्य ! तुम्हारे पात्र में हमारे आहार-पानी भी साथ लाना । हम वो आहार करेंगे, पानी पीएंगे तो पड़िहारी के साथ आहार पानी लाना कल्पे । अपड़िहारी को पड़िहारी के पात्र में लाए गए अशन आदि खाना या पीना न कल्पे लेकिन अपने पात्र में, हमारे भाजन या कमढ़ग-एक पात्र विशेष या मुट्ठी या हाथ पर लेकर खाना या पीना कल्पे । इस प्रकार का कल्प अपरिहारी का परिहारी के लिए जानना । सूत्र-६५
परिहार कल्प स्थित साधु स्थविर के पात्र लेकर बाहर स्थविर की वैयावच्च के लिए जाते देखकर स्थविर उस साधु को ऐसा कहे कि हे आर्य ! तुम्हारा आहार भी साथ में उसी पात्र में लाना और तुम भी उसे खाना और पानी पीना तो इस प्रकार लाना कल्पे लेकिन वहाँ परिहारी को अपरिहारी स्थविर के पात्र में अशन आदि आहार खाना या पीना न कल्पे लेकिन वो परिहारी साधु अपना पात्र या भाजन या) या मुट्ठी या हाथ में लेकर खाना या पीना कल्पे । इस प्रकार अपरिहारी के लिए परिहारी का कल्प आचार जानना-इस प्रकार मैं (तुम्हें) कहता हूँ।
उद्देशक-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(व्यवहार)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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