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आगम सूत्र ३६, छेदसूत्र-३, 'व्यवहार'
उद्देशक/सूत्र सूत्र-३३-३५
जो साधु अन्य किसी अकृत्य स्थान (न करने लायक स्थान) सेवन करके आलोचना करना चाहे तो जहाँ खुद के आचार्य-उपाध्याय हो वहाँ जाकर उनसे विशुद्धि करवाना कल्पे । फिर से वैसा करने के लिए तत्पर होना और योग्य तप रूप कर्म द्वारा प्रायश्चित्त ग्रहण करना ।
यदि अपने आचार्य-उपाध्याय पास में न मिले तो जो गुणग्राही गम्भीर साधर्मिक साधु बहुश्रुत, प्रायश्चित्त दाता, आगम ज्ञाता ऐसे सांभोगिक एक मांडलीवाले साधु हो उनके पास दोष का सेवन करके साधु आलोचना आदि करके शुद्ध हो, अब यदि एक मांडलीवाले ऐसे साधर्मिक साधु न मिले तो ऐसे ही अन्य गच्छ के सांभोगिक, वो भी न मिले तो ऐसे ही वेशधारी साधु, वो भी न मिले तो ऐसे ही श्रावक कि जिन्होंने पहले साधुपन रखा है और बहुश्रुत-आगम ज्ञाता है लेकिन हाल में श्रावक हैं, वो भी न मिले तो समभावी गृहस्थज्ञाता और.........
वो भी न मिले तो बाहर नगर, निगम, राजधानी, खेड़ा, कसबा, मंडप, पाटण, द्रोणमुख, आश्रम या संनिवेश के लिए पूर्व या उत्तर दिशा के सामने मुख करके दो हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर, मस्तक से अंजलि देकर वो दोष सेवन करके साधु इस प्रकार बोले कि जिस तरह मेरा अपराध है, 'मैं अपराधी हूँ। ऐसे तीन बार बोले फिर अरिहंत और सिद्ध की मौजुदगी में आलोचना करे, प्रतिक्रमण, विशुद्धि करे फिर वो पाप न करने के लिए सावध हो और फिर अपने दोष के मुताबिक योग्य तपकर्म रूप प्रायश्चित्त ग्रहण करे ।
(संक्षेप में कहा जाए तो अपने आचार्य-उपाध्याय, वो न मिले तो बहुश्रुत-बहुआगमज्ञाता ऐसे सांभोगिक साधु, फिर अन्य मांडलीवाले सांभोगिक, फिर वेशधारी साधु, फिर दीक्षा छोड़ दी हो और वर्तमान में श्रावक हो वो, फिर सम्यक् दृष्टि गृहस्थ, फिर अपने आप ईस तरह आलोचना करके शुद्ध बने ।) इस प्रकार मैं (तुम्हें) कहता हूँ।
उद्देशक-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(व्यवहार)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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