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आगम सूत्र ३६, छेदसूत्र-३, 'व्यवहार'
उद्देशक/सूत्र
[३६] व्यवहार छेदसूत्र-३- हिन्दी अनुवाद
उद्देशक-१ सूत्र-१
जो साधु-साध्वी एक मास का प्रायश्चित्त स्थान अंगीकार करके, सेवन करके, आलोचन करके तब यदि माया रहित आलोचना करे तो एक मास का प्रायश्चित्त । सूत्र-२-५
यदि साधु-साध्वी दो, तीन, चार या पाँच मास का प्रायश्चित्त स्थानक सेवन करके कपट रहित आलोवे तो उतने ही मास का प्रायश्चित्त दे, यदि कपट सहित आलोवे तो हर एक में एक-एक मास का ज्यादा प्रायश्चित्त यानि तीन, चार, पाँच, छ मास का प्रायश्चित्त । पाँच मास से ज्यादा प्रायश्चित्त स्थानक सेवन करनेवाले को माया रहित या माया सहित सेवन करे तो भी छ मास का ही प्रायश्चित्त, क्योंकि छ मास के ऊपर प्रायश्चित्त नहीं है। सूत्र-६-१०
जो साधु-साध्वी बार-बार दोष सेवन करके एक, दो, तीन, चार या पाँच मास का प्रायश्चित्त स्थानक सेवन करके आलोचना करते हुए माया सहित आलोवे तो उतने ही मास का प्रायश्चित्त आता है, मायापूर्वक आलोवे तो एक-एक अधीक मास का प्रायश्चित्त आए यानि एक मासवाले को दो मास, दो मासवाले को तीन मास, यावत् पाँच मासवाले को छ मास प्रायश्चित्त ।
पाँच मास से ज्यादा समय का प्रायश्चित्त स्थान सेवन करके कपट सहित या रहित आलोचना करे तो भी छ मास का प्रायश्चित्त आता है क्योंकि छ मास से ज्यादा प्रायश्चित्त नहीं है । जिस तीर्थंकर के शासन में जितना उत्कृष्ट तप हो उससे ज्यादा प्रायश्चित्त नहीं आता। सूत्र-११-१२
जो साधु-साध्वी एक बार दोष सेवन करके या ज्यादा बार दोष सेवन करके एक, दो, तीन, चार या पाँच मास का उतने पूर्वोक्त प्रायश्चित्त स्थानक में से अन्य किसी भी प्रायश्चित्त स्थान सेवन करके यदि माया रहित आलोचना करे तो उसे उतने ही मास का प्रायश्चित्त आता है और मायापूर्वक आलोचना करे तो एक मास अधीक यानि दो, तीन, चार, पाँच, छ मास का प्रायश्चित्त आता है।।
पाँच मास से अधीक ''पाप सेवन करनेवाले को माया रहित या सहित आलोवे तो भी छ मास का ही प्रायश्चित्त आता है। सूत्र - १३-१४
जो साधु-साध्वी एक बार या बार-बार चार मास का या उससे ज्यादा, पाँच मास का या उससे ज्यादा पहले कहने के मुताबिक प्रायश्चित्त स्थानक में से किसी भी प्रायश्चित्त स्थानक का सेवन करके माया रहित आलोचना करे तो उतना ही प्रायश्चित्त आता है लेकिन मायापूर्वक आलोचना करे तो क्रमिक पाँच मास उससे कुछ ज्यादा और छ मास का प्रायश्चित्त आता है । लेकिन माया सहित या रहित आलोचना का छ मास से अधीक प्रायश्चित्त नहीं आता सूत्र- १५-१८
जो साधु-साध्वी एक बार या बार-बार चार मास का, साधिक चार मास का, पाँच मास का प्रायश्चित्त स्थानक में से अनोखा (दूसरा किसी भी) पाप स्थानक सेवन करके आलोचना करते हए माया रहित या मायापूर्वक आलोचते हुए सकल संघ के सन्मुख परिहार तप की स्थापना करे, स्थापना करके उसकी वैयावच्च करवाए । यदि मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(व्यवहार)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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