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________________ आगम सूत्र ३५, छेदसूत्र-२, 'बृहत्कल्प' उद्देशक/सूत्र उद्देशक-६ सूत्र-१९६ साधु-साध्वी को यह छ वचन बोलने न कल्पे, जैसे कि असत्य मिथ्याभाषण, दूसरों की अवहेलना करती बोली, रोषपूर्ण वचन, कर्कश कठोर वचन, गृहस्थ सम्बन्धी जैसे कि पिता-पुत्र आदि शब्द और कलह शान्त होने के बाद भी फिर से बोलना। सूत्र- १९७ कल्प के छ प्रस्तार बताए हैं । यानि साध्वाचार के प्रायश्चित्त के छ विशेष प्रकार बताए हैं । प्राणातिपात मृषावाद-अदत्तादान-ब्रह्मचर्यभंग-पुरुष न होना या दास या दासीपुत्र होना-इन छ में से कोई आक्षेप करेजब किसी एक साधु-साध्वी पर ऐसा आरोप लगाए तब पहली व्यक्ति को पूछा जाए कि तुमने इस दोष का सेवन किया है यदि वो कहे कि मैंने वो नहीं किया तो आरोप लगानेवाले को कहा जाए कि तुम्हारी बात का सबूत दो । यदि आरोप लगानेवाला सबूत दे तो दोष का सेवन करनेवाला प्रायश्चित्त का भागी बने, यदि सबूत न दे सके तो आरोप लगाने वाला प्रायश्चित्त का भागी बने । सूत्र-१९८-२०१ साधु के पाँव के तलवे में तीक्ष्ण या सूक्ष्म काँटा-लकड़ा या पत्थर की कण लग जाए, आँख में सूक्ष्म जन्तु, बीज या रज गिरे और उसे खुद साधु या सहवर्ती साधु नीकालने के लिए या ढूँढ़ने के लिए समर्थ न हो तब साध्वी उसे नीकाले या ढूँढे तो जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता उसी तरह ऐसी मुसीबत साध्वी को हो तब साध्वी उसे नीकालने या ढूँढ़ने के लिए समर्थ न हो तो साधु उसे नीकाले तो जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता। सूत्र - २०२-२०९ दुर्ग, विषमभूमि या पर्वत पर से सरकती या गिरती, दलदल, कीचड़, शेवाल या पानी में गिरती या डूबती नौका पर चड़ती या ऊतरती, विक्षिप्त चित्तवाली हो (तब पानी में अग्नि में या ऊपर से गिरनेवाली) ऐसी साध्वी को यदि कोई साधु पकड़ ले या सहारा देकर बचाए तो जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता, उसी तरह प्रलाप करती या अशान्त चित्तवाली, भूत-प्रेत आदि से पीड़ित, उन्मादवाली या पागल किसी तरह के उपसर्ग के कारण से गिरनेवाली या भटकती साध्वी को पकड़ने वाले या सहारा देनेवाले साधु को जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता। सूत्र- २१०-२१३ कलह के वक्त रोकने के लिए, कठिन प्रायश्चित्त के कारण से चलचित्त हुए, अन्नजल त्यागी संथारा स्वीकार किया हो और अन्य परिचारिका साध्वी की कमी हुई हो, गृहस्थ जीवन के परिवार की आर्थिक भींस के कारण से विचलित मनोदशा के कारण से धनलोलुप बन गई हो तब इन सभी हालात में उस साध्वी को साधु ग्रहण करे, रोके, दूर ले जाए या सांत्वन आदि दे तो जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता। सूत्र - २१४ कल्प यानि साधु-साध्वी की आचारमर्यादा के छ परिमन्थ अर्थात् घातक कहलाए हैं । इस प्रकार कौकुत्च्य यानि कुचेष्टा या भांड चेष्टा संयम की घातक है, मौखर्य-वाचाल लेकिन सत्य वचन की घातक है, तितिनक-यह लोभी है आदि बबड़ाट एषणा समिति का घातक है, चक्षु की लोलुपता ईर्या समिति की घातक है, ईच्छा लोलुपता अपरिग्रहपन की घातक है और लोभ या वृद्धि से नियाणा करना मोक्षमार्ग-समकित के घातक हैं । क्योंकि भगवंत ने सभी जगह अनिदानकरण की ही प्रशंसा की है। सूत्र - २१५ कल्पदशा (साधु-साध्वी की आचार मर्यादा) छ तरह की होती है । वो इस प्रकार सामायिक चारित्रवाले की छेदोपस्थापना रूप, परिहार विशुद्धि तप स्वीकार करनेवाले की, पारिहारिक तप पूरे करनेवाले की, जिनकल्प की मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(बृहत्कल्प)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 18
SR No.034703
Book TitleAgam 35 Bruhatkalpa Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 35, & agam_bruhatkalpa
File Size2 MB
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