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आगम सूत्र २२,उपांगसूत्र-११, 'पुष्पचूलिका'
अध्ययन/सूत्र
अपना आवास स्थान-वहाँ आई । रथ से नीचे उतर कर माता-पिता के समीप आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् जमालि की तरह माता-पिता से आज्ञा माँगी । तदनन्तर सुदर्शन गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम भोजन बनवाया और मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमंत्रित किया यावत् भोजन करने के पश्चात् शुद्ध-स्वच्छ होकर अभिनिष्क्रमण कराने के लिए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी-शीघ्र ही भूता दारिका के लिए सहस्र पुरुषों द्वारा वहन की जाए ऐसी शिबिका लाओ । तत्पश्चात् उस सुदर्शन गाथापति ने स्नान की हुई और आभूषणों से विभूषित शरीरवाली भूता दारिका को पुरुषसहस्रवाहिनी शिबिका पर आरूढ किया यावत् गुणशिलक चैत्य था, वहाँ आया और छत्रादि तीर्थंकरातिशयों को देखकर पालकी को रोका और उससे भूता दारिका को उतारा ।
इसके बाद माता-पिता उस भूता दारिका को आगे करके जहाँ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वप्रभु बिराजमान थे, वहाँ आए और तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया तथा कहा-यह भूता दारिका हमारी एकलौती पुत्री है । यह हमें इष्ट-है । यह संसार के भय से उद्विग्न होकर आप देवानुप्रिय के निकट मुंडित होकर यावत् प्रव्रजित होना चाहती है । हम इसे शिष्या-भिक्षा के रूप में आपको समर्पित करते हैं । पार्श्व प्रभु ने उत्तर दिया-'देवानप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो ।' तब उस भूता दारिका ने पार्श्व अर्हत् की अनुमति-सूनकर हर्षित हो, उत्तर-पूर्व दिशा में जाकर स्वयं आभरण-उतारे । यह वृत्तान्त देवानन्दा के समान कह लेना । अर्हत् प्रभु पार्श्व ने उसे प्रव्रजित किया और पुष्पचूलिका आर्या को शिष्या के रूप में सौंप दिया । उसने पुष्पचूलिका आर्या से शिक्षा प्राप्त की यावत् वह गुप्त ब्रह्मचारिणी हो गई।
कुछ काल के पश्चात् वह भूता आर्यिका शरीरबकुशिका हो गई । वह बारबार हाथ, पैर, शिर, मुख, स्तनान्तर, कांख, गुह्यान्तर धोती और जहाँ कहीं भी खड़ी होती, सोती, बैठती अथवा स्वाध्याय करती उस-उस स्थान पर पहले पानी छिड़कती और उसके बाद खड़ी होती, सोती, बैठती या स्वाध्याय करती । तब पुष्पचूलिका आर्या ने समझाया-देवानुप्रिये ! हम ईर्यासमिति से समित यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थ श्रमणी हैं । इसलिए हमें शरीरबकुशिका होना नहीं कल्पता है, तुम इस स्थान की आलोचना करो । इत्यादि शेष वर्णन सुभद्रा के समान जानना । यावत् एक दिन उपाश्रय से नीकल कर वह बिल्कुल अकेले उपाश्रय में जाकर निवास करने लगी । तत्पश्चात् वह भूता आर्या निरंकुश, बिना रोकटोक के स्वच्छन्दमति होकर बार-बार हाथ धोने लगी यावत् स्वाध्याय करने लगी।
तब वह भूता आर्या विविध प्रकार की चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त आदि तपश्चर्या करके और बहुत वर्षों तक श्रमणीपर्याय का पालन करके एवं अपनी अनचित अयोग्य कायप्रवत्ति की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किए बिना ही मरण करके सौधर्मकल्प के श्रीअवतंसक विमान की उपपातसभा में यावत् श्रीदेवी के रूप में उत्पन्न हुई, यावत् पाँच-पर्याप्ति से पर्याप्त हुई। इस प्रकार हे गौतम ! श्रीदेवी ने यह दिव्य देवऋद्धि, लब्धि और प्राप्ति की है। वहाँ उसकी एक पल्योपम की आयु-स्थिति है । वह आयुष्य पूर्ण करके 'महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगी और सिद्धि प्राप्त करेंगी।
इसी प्रकार शेष नौ अध्ययनों का भी वर्णन करना । मरण के पश्चात् अपने-अपने नाम के अनुरूप नामवाले विमानों में उनकी उत्पत्ति हुई। सभी का सौधर्मकल्प में उत्पाद हुआ । उनका पूर्वभव भूता के समान है। नगर, चैत्य, माता-पिता और अपने नाम आदि संग्रहणीगाथा के अनुसार है । सभी पार्श्व अर्हत् से प्रव्रजित हुई और वे पुष्पचूला आर्या की शिष्याएं हुई । सभी शरीरबकुशिका हुईं और देवलोक के भव के अनन्तर च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होंगी। (२२)-पुष्पचूलिका-उपांगसूत्र-११ का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (पुष्पचूलिका)- आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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