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आगम सूत्र २२, उपांगसूत्र-११, ‘पुष्पचूलिका’
[२२] पुष्पचूलिका उपांगसूत्र-११- हिन्दी अनुवाद
अध्ययन - १ - से- १०
अध्ययन / सूत्र
सूत्र - १
हे भदन्त ! यदि मोक्षप्राप्त यावत् श्रमण भगवान महावीर ने पुष्पिका नामक तृतीय उपांग का यह अर्थ प्रतिपादित किया है तो चतुर्थ उपांग का क्या अर्थ- कहा है ? हे जम्बू ! चतुर्थ उपांग पुष्पचूलिका के दस अध्ययन प्रतिपादित किए हैं, वे इस प्रकार हैं
सूत्र - २
श्रीदेवी, ह्रीदेवी, धृतिदेवी, कीर्तिदेवी, बुद्धिदेवी, लक्ष्मीदेवी, इलादेवी, सुरादेवी, रसदेवी और गन्धदेवी ।
सूत्र - ३
हे भदन्त ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान महावीर ने प्रथम अध्ययन का क्या आशय बताया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । गुणशिलक चैत्य था । श्रेणिक राजा था । श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे । परिषद् नीकली ।
उस काल और उस समय श्रीदेवी सौधर्मकल्प में श्री अवतंसक विमान की सुधर्मासभा में बहुपुत्रिका देवी के समान श्रीसिंहासन पर बैठी हुई थी उसने अवधिज्ञान से भगवान को देखा । यावत् नृत्य - विधि को प्रदर्शित कर वापिस लौट गई । यहाँ इतना विशेष है कि श्रीदेवी ने अपनी नृत्यविधि में बालिकाओं की विकुर्वणा नहीं की थी । गौतमस्वामी ने भगवान से पूर्वभव के विषय में पूछा ।
हे गौतम ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । गुणशिलक चैत्य था, राजा जितशत्रू था । उस राजगृह नगर में धनाढ्य सुदर्शन नाम का गाथापति था । उसकी सुकोमल अंगोपांग, सुन्दर शरीर वाली आदि विशेषणों से विशिष्ट प्रिया नाम की भार्या थी । उस सुदर्शन गाथापति की पुत्री, प्रिया गाथापत्नी की आत्मजा भूता नाम की दारिका थी । जो वृद्ध-शरीर और वृद्धकुमारी, जीर्णशरीर वाली और जीर्णकुमारी, शिथिल नितम्ब और स्तनवाली तथा वरविहीन थी ।
उस काल और उस समय में पुरुषादानीय एवं नौ हाथ की अवगाहनावाले इत्यादि रूप से वर्णनीय अर्हत् पार्श्व प्रभु पधारे । परिषद् नीकली । भूता दारिका इस संवाद को सूनकर हर्षित और संतुष्ट हुई और माता-पिता आज्ञा माँगी-‘हे मात-तात ! पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् यावत् शिष्यगण से परिवृत होकर बिराजमान हैं । आपकी आज्ञा-अनुमति लेकर मैं वंदना के लिए जाना चाहती हूँ । 'देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो । तत्पश्चात् भूता दारिका ने स्नान किया यावत् शरीर को अलंकृत करके दासियों के समूह के साथ अपने घर से नीकली । उत्तम धार्मिक यान- पर आसीन हुई ।
इस के बाद वह भूता दारिका अपने स्वजन परिवार को साथ ले कर राजगृह नगर के मध्यभागमें से नीकली । पार्श्व प्रभु बिराजमान थे, वहाँ आई । तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा कर के वंदना की यावत् पर्युपासना करने लगी । तदनन्तर पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वप्रभु ने उस भूता बालिका और अति विशाल परिषद् को धर्मदेशना सुनाई । धर्मदेशना सूनकर और उसे हृदयंगम करके वह हृष्ट-तुष्ट हुई। फिर भूता दारिका ने वंदन - नमस्कार किया और कहा-' भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ- यावत् निर्ग्रन्थ-प्रवचन को अंगीकार करने के लिए तत्पर हूँ । हे भदन्त ! माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर लूँ, तब मैं यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ ।' अर्हत् पार्श्व प्रभु ने उत्तर दिया-'देवानुप्रिये ! ईच्छानुसार करो ।'
इसके बाद वह भूता दारिका यावत् उसी धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ हुई । जहाँ राजगृह नगर था, जहाँ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (पुष्पचूलिका)" आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद”
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