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________________ आगम सूत्र २१,उपांगसूत्र-१०, 'पुष्पिका' अध्ययन/सूत्र सुभद्रा सार्थवाही को हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने योग्य पालकी में बैठाया और उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही जहाँ सुव्रता आर्या का उपाश्रय था वहाँ आई । आकर उस पुरुषसहस्रवाहिनी पालकी को रोका और पालकी से ऊतरी । भद्र सार्थवाह सुभद्रा सार्थवाही को आगे करके सुव्रता आर्या के पास आया और आकर उसने वन्दन-नमस्कार किया। निवेदन किया ‘देवानुप्रिये ! मेरी यह सुभद्रा भार्या मुझे अत्यन्त इष्ट और कान्त है यावत् इसको वात-पित्त-कफ और सन्निपातजन्य विविध रोग-आतंक आदि स्पर्श न कर सके, इसके लिए सर्वदा प्रयत्न करता रहा । लेकिन अब यह संसार के भय से उद्विग्न एवं जन्म-स्मरण से भयभीत होकर आप के पास यावत् प्रव्रजित होने के लिए तत्पर है। इसलिए मैं आपको यह शिष्या रूप भिक्षा दे रहा हूँ | आप देवानुप्रिया इस शिष्या-भिक्षा को स्वीकार करें ।' भद्र सार्थवाह के इस प्रकार निवेदन करने पर सुव्रता आर्या ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसा तुम्हें अनुकूल प्रतीत हो, वैसा करो, किन्तु इस मांगलिक कार्य में विलम्ब मत करो।' सुव्रता आर्या के इस कथन को सूनकर सुभद्रा सार्थवाही हर्षित एवं संतुष्ट हुई और उसमे स्वयमेव अपने हाथों से वस्त्र, माला और आभूषणों को ऊतारा । पंचमुष्टिक केशलोंच किया फिर जहाँ सुव्रता आर्या थीं, वहाँ आई। प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन-नमस्कार किया । और बोली-यह संसार आदीप्त है, प्रदीप्त है, इत्यादि कहते हुए देवानन्दा के समान वह उन सुव्रता आर्या के पास प्रव्रजित हो गई और पाँच समितियों एवं तीन गुप्तियों से युक्त होकर इन्द्रियों का निग्रह करने वाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी आर्या हो गई। - इसके बाद सुभद्रा आर्या किसी समय गृहस्थों के बालक-बालिकाओं में मूर्च्छित आसक्त हो गई-यावत् उन बालक-बालिकाओं के लिए अभ्यंगन, उबटन, प्रासुक जल, उन बच्चों के हाथ-पैर रंगने के लिए मेहंदी आदि रंजक द्रव्य, कंकण, अंजन, वर्णक, चूर्णक, खिलौने के लिए मिष्टान्न, खीर, दूध और पुष्प-माला आदि की गवेषणा करने लगी । उन गृहस्थों के दारक-दारिकाओं, कुमार-कुमारिकाओं, बच्चे-बच्चियों में से किसी की तेल-मालिश करती, किसी के उबटन लगाती, इसी प्रकार किसी को प्रासुक जल से स्नान कराती, पैरों को रंगती, ओठों को रंगती, काजल आंजती, तिलक लगाती, बिन्दी लगाती, झुलाती तथा किसी-किसी को पंक्ति में खड़ा करती, चंदन लगाती, सुगन्धित चूर्ण लगाती, खिलौने देती, खाने के लिए मिष्टान्न देती, दूध पिलाती, किसी के कंठ में पहनी हुई पुष्पमाला को उतारती, पैरों पर बैठाती तो किसी को जांघों पर बैठाती । किसी को टांगों पर, गोदी में, कमर पर, पीठ पर, छाती पर, कन्धों पर, मस्तक पर बैठाती और हथेलियों में लेकर हुलराती, लोरियाँ गाती हुई, पुचकारती हुई पुत्र की लालसा, पुत्री की वांछा, पोते-पोतियों की लालसा का अनुभव करती हुई अपना समय बीताने लगी। उस की ऐसी वृत्ति-देखकर सुव्रता आर्या ने कहा-देवानुप्रिये ! हम लोग संसार-विषयों से विरक्त, ईर्यासमिति आदि से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थी श्रमणी हैं । हमें बालकों का लालन-पालन, आदि करनाकराना नहीं कल्पता है । लेकिन तुम गृहस्थों के बालकों में मूर्च्छित यावत् अनुरागिणी होकर उनका अभ्यंगत आदि करने रूप अकल्पनीय कार्य करती हो यावत् पुत्र-पौत्र आदि की लालसापूर्ति का अनुभव करती हो । अतएव तुम इस स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त लो । सुव्रता आर्या द्वारा इस प्रकार से अकल्पनीय कार्यों से रोकने के लिए समझाए जाने पर भी सुभद्रा आर्या ने उन सुव्रता आर्या के कथन का आदर नहीं किया किन्तु उपेक्षा-पूर्वक अस्वीकार कर पूर्ववत् बाल-मनोरंजन करती रही। तब निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ इस अयोग्य कार्य के लिए सुभद्रा आर्या की हीलना, निन्दा, खिंसा, गर्दा करतीं और ऐसा करने से उसे बार-बार रोकतीं। उन सुव्रता आदि निर्ग्रन्थ श्रमणी आर्याओं द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से हीलना आदि किए जाने और बार-बार रोकने-पर उस सुभद्रा आर्या को इस प्रकार का यावत् मानसिक विचार उत्पन्न हुआ 'जब मैं अपने घर में थी, तब मैं स्वाधीन थी, लेकिन जब से मैं मुण्डित होकर गृह त्याग कर अनगारिक प्रव्रज्या से प्रव्रजित हई हूँ, तब से मैं पराधीन हो गई हैं। पहले जो निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ मेरा आदर करती थी, मेरे साथ प्रेम-पूर्वक आलाप-संलाप करती थीं, वे आज न तो मेरा आदर करती हैं और न प्रेम से बोलती हैं । इसलिए मुझे मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (पुष्पिका) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 15
SR No.034688
Book TitleAgam 21 Pushpika Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 21, & agam_pushpika
File Size2 MB
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