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________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र से विभूषित है। उसके शिखरों पर अनेक प्रकार की पंचरंगी ध्वजाएं तथा घंटे लगे हैं। वह सफेद रंग का है। वह इतना चमकीला है कि उससे किरणें प्रस्फुटित होती हैं । वहाँ की भूमि गोबर आदि से लिपी है । यावत् सुगन्धित धुएं की प्रचुरता से वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले से बन रहे हैं। उस सिद्धायतन की तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं । वे द्वार पाँच सौ धनुष उंचे और ढाई सौ धनुष चौड़े हैं। उनका उतना ही प्रवेश-परिमाण है | उनकी स्तूपिकाएं श्वेत-उत्तम-स्वर्णनिर्मित है । उस सिद्धायतन में बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है, जो मृदंग आदि के ऊपरी भाग के सदृश समतल है । उस भूमिभाग के ठीक बीच में देवच्छन्दक है । वह पाँच सौ धनुष लम्बा, पाँच सौ धनुष चौड़ा और कुछ अधिक पाँच सौ धनुष ऊंचा है, सर्व रत्नमय है । यहाँ जिनोत्सेध परिमाण-एक सौ आठ जिन-प्रतिमाएं हैं । यह जिनप्रतिमा का समग्र वर्णन जीवाजीवाभिगम सूत्रानुसार जान लेना । सूत्र-१५ भगवन् ! वैताढ्य पर्वत का दक्षिणार्ध भरतकूट कहाँ है ? गौतम ! खण्डप्रपातकूट के पूर्व में तथा सिद्धायतनकूट के पश्चिम में है । उसका परिमाण आदि वर्णन सिद्धायतनकूट के बराबर है । दक्षिणार्ध भरतकूट के अति समतल, सुन्दर भूमिभाग में एक उत्तम प्रासाद है । वह एक कोस ऊंचा और आधा कोस चौड़ा है । अपने से निकलती प्रभामय किरणों से वह हँसता-सा प्रतीत होता है, बड़ा सुन्दर है । उस प्रासाद के ठीक बीच में एक विशाल मणिपीठिका है । वह पाँच सौ धनुष लम्बीचौडी तथा अढाई सौ धनुष मोटी है, सर्वरत्नमय है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक सिंहासन है। भगवन् ! उसका नाम दक्षिणार्ध भरतकूट किस कारण पड़ा? गौतम ! दक्षिणार्ध भरतकूट पर अत्यन्त ऋद्धिशाली, यावत् एक पल्योपमस्थितिक देव रहता है । उसके चार हजार सामानिक देव, अपने परिवार से परिवृत्त चार अग्रमहिषियाँ, तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति तथा सोलह हजार आत्मरक्षक देव हैं । दक्षिणार्ध भरतकूट की दक्षिणार्धा नामक राजधानी है, जहाँ वह अपने इस देव-परिवार का तथा बहुत से अन्य देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ सुखपूर्वक निवास करता है, विहार करता है-सुख भोगता है। भगवन् ! दक्षिणार्ध भरतकूट देव की दक्षिणार्धा राजधानी कहाँ है ? गौतम ! मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्यात द्वीप और समुद्र लाँघकर जाने पर अन्य जम्बूद्वीप है । यहाँ दक्षिण दिशा में १२०० योजन नीचे जाने पर है । राजधानी का वर्णन विजयदेव की राजधानी सदृश जानना । इसी प्रकार कुटो को जानना। ये क्रमश: पूर्व से पश्चिम की ओर हैं। सूत्र-१६ वैताढ्य पर्वत के मध्य में तीन कूट स्वर्णमय हैं, बाकी के सभी पर्वतकूट रत्नमय हैं। सूत्र - १७ जिस नाम के कूट है, उसी नाम के देव होते हैं-प्रत्येक देव की एक-एक पल्योपम की स्थिति होती है। सूत्र - १८ मणिभद्रकूट, वैताढ्यकूट एवं पूर्णभद्रकूट-ये तीन कूट स्वर्णमय हैं तथा बाकी के छह कूट रत्नमय हैं । दो पर कृत्यमालक तथा नृत्यमालक नामक दो विसदृश नामों वाले देव रहते हैं । बाकी के छह कूटों पर कूटसदृश नाम के देव रहते हैं । मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्येय द्वीप समुद्रों को लांघते हुए अन्य जम्बूद्वीप में १२००० योजन नीचे जाने पर उनकी राजधानियाँ हैं । उनका वर्णन विजया राजधानी जैसा समझ लेना । सूत्र - १९ भगवन् ! वैताढ्य पर्वत को वैताढ्य पर्वत' क्यों कहते हैं ? गौतम ! वो भरतक्षेत्र को दक्षिणार्ध भरत तथा मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 9
SR No.034685
Book TitleAgam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 18, & agam_jambudwipapragnapti
File Size3 MB
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