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________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र चन्द्रकान्त आदि रत्न, हीरे तथा नीलम से बने उज्ज्वल दंडयुक्त, स्वर्णमणि एवं रत्नों से चित्रांकित, काले अगर, उत्तम कुन्दरुक्क, लोबान एवं धूप से निकलती श्रेष्ठ सुगन्ध से परिव्याप्त, धूम-श्रेणी छोड़ते हुए नीलम-निर्मित धूपदान को पकड़ कर सावधानी से, धूप देता है । जिनवरेन्द्र के सम्मुख सात-आठ कदम चलकर, हाथ जोड़कर जागरूक शुद्ध पाठयुक्त, एक सौ आठ स्तुति करता है । वैसा कर वह अपना बायां घुटना ऊंचा उठाता है, दाहिना घुटना भूमितल पर रखता है, हाथ जोड़ता है, कहता है-हे सिद्ध, बुद्ध, नीरज, श्रमण, समाहित, कृत-कृत्य ! समयोगिन् ! शल्य-कर्तन, निर्भय, नीरागदोष, निर्मम, निःशल्य, मान-मूरण, गुण-रत्न-शील-सागर, अनन्त, अप्रमेय, धर्म-साम्राज्य के भावी उत्तम चातुरन्त-चक्रवर्ती धर्मचक्र के प्रवर्तक ! अर्हत, आपको नमस्कार हो । इन शब्दों में वह भगवान् को वन्दन करता है, नमन करता है । पर्युपासना करता है। अच्युतेन्द्र की ज्यों प्राणतेन्द्र यावत् ईशानेन्द्र, भवनपति, वानव्यन्तर एवं ज्योतिष्केन्द्र सभी इसी प्रकार अपने-अपने देव-परिवार सहित अभिषेक-कृत्य करते हैं । देवेन्द्र, देवराज ईशान पाँच ईशानेन्द्रों की विकुर्वणा करता है-एक ईशानेन्द्र तीर्थंकर को उठाकर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठता है । एक छत्र धारण करता है। दो ईशानेन्द्र चँवर इलाते हैं । एक ईशानेन्द्र हाथ में त्रिशूल लिये आगे खडा रहता है। तब देवेन्द्र देवराज शक्र अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है । अच्युतेन्द्र की ज्यों अभिषेक-सामग्री लाने की आज्ञा देता है । फिर देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् तीर्थंकर की चारों दिशाओं में शंख के चूर्ण की ज्यों विमल, गहरे जमे हुए, दधि-पिण्ड, गोदुग्ध के झाग एवं चन्द्र-ज्योत्सना की ज्यों सफेद, चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप, प्रतिरूप, वृषभोंकी विकुर्वणा करता है। उन चारों बैलों के आठ सींगो में से आठ जलधाराएं निकलती हैं, तीर्थंकर के मस्तक पर निपतीत होती हैं । अपने ८४००० सामानिक आदि देव-परिवार से परिवृत्त देवेन्द्र, देवराज शक्र तीर्थंकर का अभिषेक करता है । वन्दन नमन करता है, पर्युपासना करता है। सूत्र-२४४ तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र पाँच शक्रों की विकुर्वणा करता है । यावत् एक शक्र वज्र हाथ में लिये आगे खड़ा होता है । फिर शक्र अपने ८४००० सामानिक देवों, भवनपति यावत् वैमानिक देवों, देवियों से परिवृत, सब प्रकार की ऋद्धि से युक्त, वाद्य-ध्वनि के बीच उत्कृष्ट त्वरित दिव्य गति द्वारा, जहाँ भगवान् तीर्थंकर का जन्म-भवन था वहाँ आता है । तीर्थंकर को उनकी माता की बगल में स्थापित करता है । तीर्थंकर के प्रतिकरूप को, प्रतिसंहृत करता है । भगवान् तीर्थंकर की माता की अवस्वापिनी निद्रा को, जिसमें वह सोई होती है, प्रतिसंहृत कर लेता है। भगवान् तीर्थंकर के उच्छीर्षक मूल में-दो बड़े वस्त्र तथा दो कुण्डल रखता है । तपनीय-स्वर्ण-निर्मित झुम्बनक, सोने के पातों से परिमण्डित, नाना प्रकार की मणियों तथा रत्नों से बने तरह-तरह के हारों, अर्धहारों से उपशोभित श्रीमदागण्ड भगवान के ऊपर तनी चाँदनी में लटकाता है, जिसे भगवान् तीर्थंकर निर्निमेष दृष्टि से-उसे देखते हुए सुखपूर्वक अभिरमण करते हैं। तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र वैश्रमण देव को बुलाकर कहता है-शीघ्र ही ३२-३२ करोड़ रौप्य-मुद्राएं, स्वर्ण-मुद्राएं, वर्तुलाकार लोहासन, भद्रासन भगवान् तीर्थंकर के जन्म-भवन में लाओ । वैश्रमण देव शक्र के आदेश को विनयपूर्वक स्वीकार करता है । जम्भक देवों को बुलाता है । बुलाकर शक्र की आज्ञा से सूचित करता है । वे शीघ्र ही बत्तीस करोड रौप्य-मुद्राएं आदि तीर्थंकर के जन्म-भवन में आते हैं । वैश्रमण देव को सूचित करते हैं। तब वैश्रमण देव देवेन्द्र देवराज शक्र को अवगत कराता है। तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अपने आभियोगिक देवों को बुलाकर कहता है-देवानुप्रियों ! शीघ्र ही तीर्थंकर के जन्म-नगर के तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों एवं विशाल मार्गों में जोर-जोर से उद्घोषित करते हुए कहो-' बहुत से भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देव-देवियों ! आप सूनें-आप में से जो कोई तीर्थंकर या उनकी माता के प्रति अपने मन में अशुभ भाव लायेगा-आर्यक मंजरी की ज्यों उसके मस्तक के सौ टुकड़े हो जायेंगे। मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 83
SR No.034685
Book TitleAgam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 18, & agam_jambudwipapragnapti
File Size3 MB
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