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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र
योजन लम्बी-चौड़ी तथा एक योजन मोटी है । उन मणिपीठिकाओं में से प्रत्येक पर जिनदेव के आसन हैं । वे आसन दो योजन लम्बे-चौड़े हैं, कुछ अधिक दो योजन ऊंचे हैं । वे सम्पूर्णतः रत्नमय हैं । धूपदान पर्यन्त जिनप्रतिमा वर्णन पूर्वानुरूप है । अभिषेक सभा में तथा आलंकारिक सभा में बहुत से अलंकार-पात्र हैं, व्यवसाय-सभा में पुस्तक-रत्न हैं । वहाँ नन्दा पुष्करिणियाँ हैं, पूजा-पीठ हैं । वे पीठ दो योजन लम्बे-चौड़े तथा एक योजन मोटे हैं। सूत्र- १४४,१४५
उपपात, संकल्प, अभिषेक, त्रिभूषणा, व्यवसाय, अर्चनिका, सुधर्मासभा में गमन, परिवारणा, ऋद्धिआदि यमक देवों का वर्णन-क्रम है।
नीलवान् पर्वत से यमक पर्वतों का जितना अन्तर है, उतना ही यमक-द्रहों का अन्य द्रहों से अन्तर है। सूत्र-१४६-१५०
भगवन् ! उत्तरकुरु में नीलवान् द्रह कहाँ है ? गौतम ! यमक पर्वतों के दक्षिणी छोर से ८३४-४/७ योजन के अन्तराल पर शीता महानदी के ठीक बीच में नीलवान् नामक द्रह है । वह दक्षिण-उत्तर लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। शेष वर्णन पद्मद्रह समान है। केवल इतना अन्तर है-नीलवान् द्रह दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों द्वारा परिवेष्टित है । वहाँ नीलवान् नामक नागकुमार देव निवास करता है।।
नीलवान् द्रह के पूर्वी पश्चिमी पार्श्व में दश-दश योजन के अन्तराल पर बीस काञ्चनक पर्वत हैं । वे सौ योजन ऊंचे हैं। काञ्चनकपर्वतों का विस्तार मूल में सौ योजन, मध्यमें ७५ योजन तथा ऊपर ५० योजन है। उनकी परिधि मूल में ३१६ योजन, मध्य में २३७ योजन तथा ऊपर १५८ योजन है । पहला नीलवान्, दूसरा उत्तरकुरु, तीसरा चन्द्र, चौथा ऐरावत तथा पाँचवां माल्यवान्-ये पाँच द्रह हैं । अन्य द्रहों का प्रमाण, वर्णन नीलवान् द्रह के सदृश है । उनमें एक पल्योपम आयुष्यवाले देव निवास करते हैं । प्रथम नीलवान् द्रह में नागेन्द्र देव तथा अन्य चार में व्यन्तरेन्द्र देव निवास करते हैं। सूत्र-१५१-१५३
भगवन् ! उत्तरकुरु में जम्बूपीठ कहाँ है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, मन्दर पर्वत के उत्तर में माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में एवं शीता महानदी के पूर्वी तट पर है । वह ५०० योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि कुछ अधिक १५८१ योजन है । वह पीठ बीच में बारह योजन मोटा है। फिर क्रमशः मोटाई में कम होता हुआ आखिरी छोरों पर दो दो कोश मोटा है । वह सम्पूर्णतः जम्बूनदजातीय स्वर्णमय है, उज्ज्वल है । एक पद्मवरवेदिका से तथा एक वन-खण्ड से सब ओर से घिरा है । जम्बूपीठ की चारों दिशाओं में तीन-तीन सोपान पंक्तियाँ हैं । जम्बूपीठ के बीचोंबीच एक मणि-पीठिका है । वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी है, चार योजन मोटी है । उस के ऊपर जम्बू सुदर्शना नामक वृक्ष है । वह आठ योजन ऊंचा तथा आधा योजन जमीन में गहरा है उसका स्कन्ध-दो योजन ऊंचा और आधा योजन मोटा है । शाखा ६ योजन ऊंची है। बीच में उसका आयाम-विस्तार आठ योजन है । यों सर्वांगतः उसका आयाम-विस्तार कुछ अधिक आठ योजन है।
वह जम्बू वृक्ष के मूल वज्ररत्नमय हैं, विडिमा से ऊर्ध्व विनिर्गत-हुई शाखा रजत-घटित है । यावत् वह वृक्ष दर्शनीय है । जम्बू सुदर्शना की चारों दिशाओं में चार शाखाएं हैं । उन शाखाओं के बीचोंबीच एक सिद्धायतन है। वह एक कोश लम्बा, आधा कोश चौड़ा तथा कुछ कम एक कोश ऊंचा है । वह सैकड़ों खंभों पर टिका है । उसके द्वार पाँच सौ धनुष ऊंचे हैं । उपर्युक्त मणिपीठिका ५०० धनुष लम्बी-चौड़ी है, २५० धनुष मोटी है । उस मणिपीठिका पर देवच्छन्दक-है । वह पाँच सौ धनुष लम्बा-चौड़ा है, कुछ अधिक पाँच सौ धनुष ऊंचा है । आगे जिनप्रतिमाओं तक का वर्णन पूर्ववत् है । उपर्युक्त शाखाओं में जो पूर्वी शाखा है, वहाँ एक भवन है । वह एक कोश लम्बा है । बाकी की दिशाओं में जो शाखाएं हैं, वहाँ प्रासादवतंसक- हैं । वह जम्बू बारह पद्मवरवेदिकाओं द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है । पुनः वह अन्य १०८ जम्बू वृक्षों से घिरा हुआ है, जो उससे आधे ऊंचे हैं । वे जम्बू वृक्ष
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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