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________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, तलवर, सार्थवाह आदि का आधिपत्य पौरोवृत्य, भर्तृत्व, स्वामित्व, महत्तरत्वआज्ञेश्वरत्व, सैनापत्य-इन सबका सर्वाधिकृत रूप में पालन करता हुआ, सम्यक् निर्वाह करता हुआ राज्य करता था । राजा भरत ने अपने कण्टकों-की समग्र सम्पत्ति का हरण कर लिया, उन्हें विनष्ट कर दिया तथा अपने अगोत्रज समस्त शत्रुओं को मसल डाला, कुचल डाला । उन्हें देश से निर्वासित कर दिया । राजा भरत को सर्वविध औषधियाँ, रत्न तथा समितियाँ संप्राप्त थीं। अमित्रों का उसने मानभंग कर दिया । उसके समस्त मनोरथ सम्यक् सम्पूर्ण थे-जिसके अंग श्रेष्ठ चन्दन से चर्चित थे, वक्षःस्थल हारों से सुशोभित था, प्रीतिकर था, श्रेष्ठ मुकुट से विभूषित था, उत्तम, बहुमूल्य आभूषण धारण किये था, सब ऋतुओं में खिलने वाले फूलों की सुहावनी माला से जिसका मस्तक शोभित था, उत्कृष्ट नाटक प्रतिबद्ध पात्रों-तथा सुन्दर स्त्रियों के समूह से संपरिवृत्त वह राजा भरत अपने पूर्व जन्म में आचीर्ण तप के, संचित निकाचित पुण्य कर्मों के परिणामस्वरूप मुन्य जीवन के सुखों का परिभोग करने लगा। सूत्र-१२५ किसी दिन राजा भरत ने स्नान किया । देखने में प्रिय एवं सुन्दर लगनेवाला राजा स्नानघर से बाहर निकला । जहाँ आदर्शगृह में, जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया । पूर्व की और मुँह किये सिंहासन पर बैठा । शीशों पर पड़ते अपने प्रतिबिम्ब को बार बार देखता था । शुभ परिणाम, प्रशस्त-अध्यवसाय, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं, विशुद्धिक्रम से ईहा, अपोह, मार्गण तथा गवेषण-करते राजा भरत को कर्मक्षय से-कर्मरज के निवारक अपूर्व करणमें अवस्थिति द्वारा अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुए तब केवली सर्वज्ञ भरत ने स्वयं ही अपने आभूषण, अलंकार उतार दिये । स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया । वे शीशमहल से प्रतिनिष्क्रान्त हुए । अन्तःपुर के बीच से होते हुए राजभवन से बाहर निकले । अपने द्वारा प्रतिबोधित दश हजार राजओं से संपरिवृत्त केवली भरत विनीता राजधानी के बीच से होते हुए बाहर चले गये । कोशलदेश में सुखपूर्वक विहार करते हुए वे अष्टापद पर्वत वहाँ आकर पर्वत पर चढ़कर सघन मेघ के समान श्याम तथा देव-सन्निपात के कारण जहाँ देवों का आवागमन रहता था, ऐसे पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया । वहाँ संलेखना-स्वीकार किया, खान-पान का परित्याग किया, पादोपगत-संथारा अंगीकार किया। जीवन और मरण की आकांक्षा-न करते हुए वे आत्माराधना में अभिरत रहे । केवली भरत ७७ लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहे, १००० वर्ष तक मांडलिक राजा के रूप में रहे, १००० वर्ष कम छह लाख पूर्व तक महाराज के रूप में रहे । वे तियासी लाख पूर्व तक गृहस्थवास में रहे । अन्तमुहूर्त कम एक लाख पूर्व तक वे केवलीपर्याय में रहे । एक लाख पूर्व पर्यन्त बहु-प्रतिपूर्ण श्रामण्य-पर्याय-का पालन किया । चौरासी लाख पूर्व का समग्र आयुष्य भोगा । एक महीने के अनशन द्वारा वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गोत्र-इन चार भवोपग्राही कर्मों के क्षीण हो जाने पर श्रवण नक्षत्र में जब चन्द्र का योग था, देह-त्याग किया । जन्म, जरा तथा मृत्यु के बन्धन को छिन्न कर डाला- | वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त तथा सब प्रकार के दुःखों के प्रहाता हो गये। सूत्र-१२६ __यहाँ भरतक्षेत्र में महान् ऋद्धिशाली, परम द्युतिशाली, पल्योपमस्थितिक-एक पल्योपम आयुष्य युक्त भरत नामक देव निवास करता है । गौतम ! इस कारण यह क्षेत्र भरतवर्ष या भरतक्षेत्र कहा जाता है । गौतम ! भरतवर्ष नाम शाश्वत है-कभी नहीं था, कभी नहीं है, कभी नहीं होगा ऐसा नहीं है । यह था, यह है, यह होगा । ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है। वक्षस्कार-३-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद Page 49
SR No.034685
Book TitleAgam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 18, & agam_jambudwipapragnapti
File Size3 MB
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