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________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र आह्वान कर कहा-विनीता राजधानी के-ईशानकोण में एक विशाल अभिषेकमण्डप की विकुर्वणा करो-राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे आभियोगिक देवोंने राजा भरत का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया। विनीता राजधानी के ईशानकोण में गये । वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला । उन्हें संख्यात योजन पर्यन्त दण्डरूप में परिणित किया । उनसे गृह्यमाण रत्नों के बादर, असार पुद्गलों को छोड़ दिया । सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया । पुनः वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाल कर मृदंग के ऊपरी भाग की ज्यों समतल, सुन्दर भूमिभाग की विकुर्वणा की-उसके ठीक बीच में एक विशाल अभिषेक-मण्डप की रचना की। वह मण्डप सैकड़ों खंभों पर टिका था । यावत्-जिससे सुगन्धित धुएं की प्रचुरता के कारण वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले बनते दिखाई देते थे । अभिषेकमण्डप के ठीक बीच में एक विशाल अभिषेकपीठ की रचना की । यह अभिषेकपीठ स्वच्छ-ताश्लक्ष्ण पुद्गलों से बना होने से मुलायम था । उस की तीन दिशाओं में उन्होंने तीन-तीन सोपानमार्गों की रचना की । उस का भूमिभाग बहुत समतल एवं रमणीय था । उस अत्यधिक समतल, सुन्दर भूमिभाग के ठीक बीच में उन्होंने एक विशाल सिंहासन का निर्माण किया । सिंहासन का वर्णन विजयदेव के सिंहासन जैसा है। अभिषेकमण्डप की रचना कर वे जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये । उसे इससे अवगत कराया। राजा भरत उन आभियोगिक देवों से यह सुनकर हर्षित एवं परितुष्ट हुआ, पौषधशाला से बाहर निकला। उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-शीघ्र ही हस्तिरत्न को तैयार करो । हस्तिरत्न को तैयार कर चातुरंगिणी सेना को सजाओ । कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा किया एवं राजा को उसकी सूचना दी। फिर राजा भरत स्नानादि से निवृत्त होकर गजराज पर आरूढ़ हुआ । आठ मंगल-प्रतीक, राजा के आगे-आगे रवाना किये गये । विनीता से अभिनिष्क्रमण का वर्णन विनीता में प्रवेश के समान है । राजा भरत विनीता राजधानी के बीच से निकला । विनीता राजधानी के ईशानकोण में अभिषेकमण्डप आकर आभिषेक्य हस्तिरत्न को ठहराया । नीचे उतर कर स्त्रीरत्न-सुभद्रा, ३२००० ऋतुकल्याणिकाओं, ३२००० जनपदकल्याणिकाओं, बत्तीस-बत्तीस पात्रों, आदि से घिरा हुआ राजा भरत अभिषेकमण्डप में प्रविष्ट हुआ । अभिषेकपीठ के पास आकर प्रदक्षिणा की । पूर्व की ओर स्थित तीन सीढ़ियों से होता हुआ जहाँ सिंहासन था, वहाँ आकर पूर्व की ओर मुँह करके सिंहासन पर बैठा। राजा भरत के अनुगत बत्तीस हजार प्रमुख राजाने अभिषेकमण्डप में प्रवेश किया । प्रवेश कर जहाँ राजा भरत था, वहाँ आकर उन्होंने हाथ जोड़े, राजा भरत को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया । थोड़ी ही दूरी पर शुश्रूषा करते हुए-प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, राजा की पर्युपासना करते हुए यथास्थान बैठ गए । तदनन्तर राजा भरत का सेनापतिरत्न यावत् सार्थवाह आदि वहाँ आये । उनके आने का वर्णन पूर्ववत् है केवल इतना अन्तर है कि वे दक्षिण की ओर से त्रिसोपान-मार्ग से अभिषेकपीठ पर गये। तत्पश्चात् राजा भरत ने आभियोगिक देवों को आह्वान कर कहा-मेरे लिए महार्थ, महार्ध, महार्ह-ऐसे महाराज्याभिषेक का प्रबन्ध करो-राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे आभियोगिक देव-ईशान-कोण में गये । वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा उन्होंने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला । शेष वर्णन विजयदेव के समान है । वे देव पंडकवन में मिले । मिलकर दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में विनीता राजधानी आये । प्रदक्षिणा की, अभिषेकमण्डप में आकर महार्थ, महार्ध तथा महार्ह महाराज्याभिषेक के लिए अपेक्षित समस्त सामग्री राजा के समक्ष उपस्थित की । ३२००० राजाओं ने श्रेष्ठ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र एवं मुहूर्त में-उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र तथा विजय मुहूर्त में स्वाभाविक तथा उत्तरविक्रिया द्वारा निष्पादित, श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठापित, सुरभित, उत्तम जल से परिपूर्ण १००८ कलशों से राजा भरत का बड़े आनन्दोत्सव के साथ अभिषेक किया । अभिषेक वर्णन विजयदेव के सदृश है उन राजाओं में से प्रत्येक ने इष्ट वाणी द्वारा राजा का अभिनन्दन, अभिस्तवन किया । वे बोले-राजन् ! आप सदा जयशील हों । आपका कल्याण हो । यावत् आप सांसारिक सुख भोगें, यों कह कर उन्होंने जयघोष किया । तत्पश्चात् सेनापतिरत्न, ३६० सूपकारों, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जनों तथा और बहुत से माण्डलिक राजाओं, सार्थवाहों ने राजा भरत का अभिषेक किया । उन्होंने उदार, इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, शिव, धन्य, मंगल, मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 47
SR No.034685
Book TitleAgam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 18, & agam_jambudwipapragnapti
File Size3 MB
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