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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र
वक्षस्कार-३- 'भरत चक्रवर्ति' सूत्र-५४
भगवन् ! भरतक्षेत्र का भरतक्षेत्र' यह नाम किस कारण पड़ा? गौतम ! भरतक्षेत्र स्थित वैताढ्य पर्वत के दक्षिण के ११४-११/१९ योजन तथा लवणसमुद्र के उत्तर में ११४-११/१९ योजन की दूरी पर, गंगा महानदी के पश्चिम में और सिन्धु महानदी के पूर्व में दक्षिणार्ध भरत के मध्यवर्ती तीसरे भाग के ठीक बीच में विनीता राजधानी है । वह पूर्व-पश्चिम लम्बी एवं उत्तर-दक्षिण चौड़ी है । यह लम्बाई में बारह योजन तथा चौड़ाई में नौ योजन है । कुबेर ने अपने बुद्धि-कौशल से उस की रचना की हो ऐसी है । स्वर्णमय प्राकार, तद्गत विविध प्रकार के मणिमय पंचरंगे कपि-शीर्षकों, भीतर से शत्रु-सेना को देखने आदि हेतु निर्मित बन्दर के मस्तक के आकार के छेदों से सुशोभित एवं रमणीय है । वह अलकापुरी-सदृश है । वह प्रमोद और प्रक्रीड़ामय है । मानो प्रत्यक्ष स्वर्ग का ही रूप हो, ऐसी लगती है । वह वैभव, सुरक्षा तथा समृद्धि से युक्त है । वहाँ के नागरिक एवं जनपद के अन्य भागों से आये हुए व्यक्ति आमोद-प्रमोद के प्रचुर साधन होने से बड़े प्रमुदित रहते हैं । वह प्रतिरूप है। सूत्र-५५
विनीता राजधानी में भरत चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हआ । वह महाहिमवान् पर्वत के समान महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र के सदश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए था । वह राजा भरत राज्य का शासन करता था। राजा के वर्णन का दूसरा गम इस प्रकार है
वहाँ असंख्यात वर्ष बाद भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ । वह यशस्वी, उत्तम, अभिजात, सत्त्व, वीर्य तथा पराक्रम आदि गुणों से शोभित, प्रशस्त वर्ण, स्वर, सुदृढ़ देह-संहनन, तीक्ष्ण बुद्धि, धारणा, मेघा, उत्तम शरीरसंस्थान, शील एवं प्रकृति युक्त, उत्कृष्ट गौरव, कान्ति एवं गतियुक्त, अनेकविध प्रभावकर वचन बोलने में निपुण, तेज, आयु-बल, वीर्ययुक्त, निश्छिद्र, सघन, लोह-शृंखला की ज्यों सुदृढ़ वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन युक्त था । उसकी हथेलियों और पगथलियों पर मत्स्य, यग, भंगार, वर्धमानक, भद्रासन, शंख, छत्र, चँवर, पताका, चक्र, लांगन, मूसल, रथ, स्वस्तिक, अंकुश, चन्द्र, सूर्य, अग्नि, यूप, समुद्र, इन्द्रध्वज, कमल, पृथ्वी, हाथी, सिंहासन, दण्ड, कच्छप, उत्तम पर्वत, उत्तम अश्व, श्रेष्ठ मुकुट, कुण्डल, नन्दावर्त, धनुष, कुन्त, गागर, भवन, विमान प्रभृति पृथक्-पृथक् स्पष्ट रूप में अंकित अनेक सामुद्रिक शुभ लक्षण विद्यमान थे । उसके विशाल वक्षःस्थल पर ऊर्ध्वमुखी, सुकोमल, स्निग्ध, मृदु एवं प्रशस्त केश थे, जिनसे सहज रूप में श्रीवत्स का चिह्न था । देश एवं क्षेत्र के अनुरूप उसका सुगठित, सुन्दर शरीर था । बाल-सूर्य की किरणों से विकसित कमल के मध्यभाग जैसा उस का वर्ण था । पृष्ठान्त-घोड़े के पृष्ठान्त की ज्यों निरुपलिप्त था, प्रशस्त था । उसके शरीर से पद्म, उत्पल, चमेली, मालती, जूही, चंपक, केसर तथा कस्तूरी के सदृश सुगंध आती थी । वह छत्तीस से कहीं अधिक प्रशस्त राजोचित लक्षणों से युक्त था । अखण्डित-छत्र-का स्वामी था । उसके मातृवंश तथा पितृवंश निर्मल थे । अपने विशुद्ध कुलरूपी आकाश में वह पूर्णिमा के चन्द्र जैसा था । वह चन्द्र-सदश सौम्य था, मन और आँखों के लिए आनन्दप्रद था । वह समुद्र के समान निश्चल-गंभीर तथा सुस्थिर था । वह कुबेर की ज्यों भोगोपभोग में द्रव्य का समुचित, प्रचुर व्यय करता था । वह युद्ध में सदैव अपराजित, परम विक्रमशाली था, उसके शत्रु नष्ट हो गये थे । यों वह सुखपूर्वक भरत क्षेत्र के राज्य का भोग करता था। सूत्र-५६
एक दिन राजा भरत की आयुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । आयुधशाला के अधिकारी ने देखा । वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ, चित्त में आनन्द तथा प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ अत्यन्त सौम्य मानसिक भाव
और हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो उठा । दिव्य चक्र-रत्न को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, हाथ जोड़ते हुए चक्ररत्न को प्रणाम कर आयुधशाला से निकला, बाहरी उपस्थानशाला में आ कर उसने हाथ जोड़ते हुए राजा को मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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