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________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र पर्वत और जहाँ भगवान् तीर्थंकर का शरीर था, वहाँ आया । उसने उदास, आनन्द रहित, आँखों में आँसू भरे, तीर्थंकर के शरीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की । वैसा कर, न अधिक निकट न अधिक दूर स्थित होकर पर्युपासना की। उस समय उत्तरार्ध लोकाधिपति, २८ लाख विमानों के स्वामी, शूलपाणि, वृषभवाहन, निर्मल आकाश के रंग जैसा वस्त्र पहने हए, यावत् यथोचित रूप में माला एवं मुकुट धारण किए हए, नव-स्वर्ण-निर्मित मनोहर कुंडल पहने हुए, जो कानों से गालों तक लटक रहे थे, अत्यधिक समृद्धि, द्युति, बल, यश, प्रभाव तथा सुखसौभाग्य युक्त, देदीप्यमान शरीर युक्त, सब ऋतुओं के फूल से बनी माला, जो गले से घुटनों तक लटकती थी, धारण किए हुए, ईशानकल्प में ईशानावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में ईशान-सिंहासन पर स्थित, अठ्ठाईस लाख वैमानिक देवों, अस्सी हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिंश-गुरुस्थानीय देवों, चार लोकपालों, परिवार सहित आठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापतियों, अस्सी-अस्सी हजार चारों दिशाओं के आत्मरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से ईशानकल्पवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरापतित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञेश्वरत्व, सेनापतित्व करता हुआ देवराज ईशानेन्द्र निरवच्छिन्न नाट्य, गीत, निपुण वादकों के वाद्य, विपुल भोग भोगता हुआ विहरणशील था । ईशान देवेन्द्र ने अपना आसन चलित देखा । वैसा देखकर अवधि-ज्ञान का प्रयोग किया । भगवान तीर्थंकर को अवधिज्ञान द्वारा देखा । देखकर शक्रेन्द्र की ज्यों पर्युपासना की। ऐसे सभी देवेन्द्र अपने-अपने परिवार के साथ वहाँ आये । उसी प्रकार भवनवासियों के बीस इन्द्र, वाणव्यन्तरों के सोलह इन्द्र, ज्योतिष्कों के दो इन्द्र, अपने-अपने देव-परिवारों के साथ वहाँ-अष्टापद पर्वत पर आये तथा देवराज, देवेन्द्र शक्र ने बहुत से भवनपति, वाणव्यन्तर तथा ज्योतिष्क देवों से कहा-देवानुप्रियों ! नन्दनवन से शीघ्र स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाओ । लाकर तीन चिताओं की रचना करो-एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक बाकी के अनगारों के लिए । तब वे भवनपति आदि देव नन्दनवन से स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाये । चिताएं बनाई । तत्पश्चात् देवराज शक्रेन्द्र ने आभियोगिक देवों को कहा-देवानुप्रियों ! क्षीरोदक समुद्र से शीघ्र क्षीरोदक लाओ। वे आभियोगिक देव क्षीरोदक समुद्र से क्षीरोदक लाये । तदनन्तर देवराज शक्रेन्द्र ने तीर्थंकर के शरीर को क्षीरोदक से स्नान कराया । सरस, उत्तम गोशीर्ष चन्दन से उसे अनुलिप्त किया । हंस-सदृश श्वेत वस्त्र पहनाये । सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया । फिर उन भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने गणधरों के शरीरों को तथा साधुओं के शरीरों को क्षीरोदक से स्नान कराया । स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन से अनुलिप्त किया। दो दिव्य देवदृष्य-धारण कराये । सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। तत्पश्चात् देवराज शक्रेन्द्र ने उन अनेक भवनपति, वैमानिक आदि देवों से कहा-देवानुप्रियों ! ईहामृग, वृषभ, तुरंग यावत् वनलता के चित्रों से अंकित तीन शिबिकाओं की विकुर्वणा करो-एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशेष साधुओं के लिए । इस पर उन बहुत से भवनपति, वैमानिकों आदि देवों ने तीन शिबिकाओं की विकुर्वणा की । तब उदास, खिन्न एवं आँसू भरे देवराज देवेन्द्र शक्र ने भगवान् तीर्थंकर के, जिन्होंने जन्म, जरा तथा मृत्यु को विनष्ट कर दिया था-शरीर को शिबिका पर आरूढ किया । चिता पर रखा। भवनपति तथा वैमानिक आदि देवों ने गणधरों एवं साधुओं के शरीर शिबिका पर आरूढ कर उन्हें चिता पर रखा । देवराज शक्रेन्द्र ने तब अग्निकुमार देवों को कहा-देवानुप्रियों ! तीर्थंकर आदि को चिता में, शीघ्र अग्निकाय की विकुर्वणा करो । इस पर उदास, दुःखित तथा अश्रुपूरित नेत्रवाले अग्निकुमार देवों ने तीर्थंकर की चिता, गणधरों की चिता तथा अनगारों की चिता में अग्निकाय की विकुर्वणा की । देवराज शक्र ने फिर वायुकुमार देवों को कहा-वायुकाय की विकुर्वणा करो, अग्नि प्रज्वलित करो, तीर्थंकर के देह को, गणधरों तथा अनगारों के देह को ध्मापित करो । विमनस्क, शोकान्वित तथा अश्रुपूरित नेत्रवाले वायुकुमार देवों ने चिताओं में वायुकाय की विकुर्वणा की, तीर्थंकर आदि के शरीर मापित किये । देवराज शक्रेन्द्र ने बहुत से भवनपति तथा वैमानिक आदि देवों से कहा-देवानुप्रियों ! तीर्थंकर-चिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता में विपुल परिमाणमय अगर, तुरुष्क तथा मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 20
SR No.034685
Book TitleAgam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 18, & agam_jambudwipapragnapti
File Size3 MB
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