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________________ आगम सूत्र १७, उपांगसूत्र-६, 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र सूत्र-१८४ इस तरह चंद्र की वृद्धि एवं हानि होती है, इसी अनुभाव से चंद्र काला या प्रकाशवान होता है । सूत्र-१८५ मनुष्यक्षेत्र के अन्दर उत्पन्न हुए चंद्र-सूर्य-ग्रहगणादि पंचविध ज्योतिष्क भ्रमणशील होते हैं। सूत्र-१८६ मनुष्य क्षेत्र के बाहिर के चंद्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र तारागण भ्रमणशील नहीं होते, वे अवस्थित होते हैं। सूत्र-१८७ इस प्रकार जंबूद्वीपमें दो चंद्र, दो सूर्य उनसे दुगुने चार-चार चंद्र-सूर्य लवणसमुद्र में, उनसे तीगुने चंद्र-सूर्य घातकीपण्ड में हैं। सूत्र-१८८ जंबूद्वीप में दो, लवणसमुद्र में चार और घातकीखण्ड में बारह चंद्र होते हैं । सूत्र-१८९ घातकी खण्ड से आगे-आगे चंद्र का प्रमाण तीनगुना एवं पूर्व के चंद्र को मिलाकर होता है । (जैसे किकालोदसमुद्र है, घातकी खण्ड के बारह चंद्र को तीनगुना करने से छत्तीस हुए उनमें पूर्व के लवणसमुद्र के चार और जंबूद्वीप के दो चंद्र मिलाकर बयालीस हुए) । सूत्र-१९० यदि नक्षत्र, ग्रह और तारागण का प्रमाण जानना है तो उस चंद्र से गुणित करने से वे भी प्राप्त हो सकते हैं। सूत्र-१९१ ___मनुष्य क्षेत्र के बाहिर चंद्र-सूर्य अवस्थित प्रकाशवाले होते हैं, चंद्र अभिजीत नक्षत्र से और सूर्य पुष्य नक्षत्र से युक्त रहता है। सूत्र-१९२ ___ चंद्र से सूर्य और सूर्य से चंद्र का अन्तर ५०००० योजन है। सूत्र-१९३ सूर्य से सूर्य और चंद्र से चंद्र का अन्तर मनुष्य क्षेत्र के बाहर एक लाख योजन का होता है। सूत्र-१९४ मनुष्यलोक के बाहर चंद्र-सूर्य से एवं सूर्य-चंद्र से अन्तरित होता है, उनकी लेश्या आश्चर्यकारी-शुभ और मन्द होती है। सूत्र-१९५,१९६ एक चंद्र के परिवार में अठासी ग्रह और अट्ठाईस नक्षत्र होते हैं, अब मैं तारागण का प्रमाण कहता हूँ - एक चंद्र के परिवार में ६६९०५ कोडाकोडी तारागण होते हैं। सूत्र-१९७ मनुष्य क्षेत्र के अन्तर्गत् जो चंद्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारागण हैं, वह क्या ऊोपपन्न हैं ? कल्पोपपन्न ? विमानोपपन्न है ? अथवा चारोपपन्न है ? वे देव विमानोपपन्न एवं चारोपपन्न है, वे चारस्थितिक नहीं होते किन्तु गतिरतिक-गतिसमापन्नक-ऊर्ध्वमुखीकलंबपुष्प संस्थानवाले हजारो योजन तापक्षेत्रवाले, बाह्य पर्षदा से विकुर्वित हजारो संख्या के वाद्य-तंत्री-ताल-त्रुटित इत्यादि ध्वनि से युक्त, उत्कृष्ट सिंहनाद-मधुरकलरव, स्वच्छ यावत् पर्वत-राज मेरुपर्वत को प्रदक्षिणावर्त्त से भ्रमण करते हुए विचरण करते हैं । इन्द्र के विरह में चार-पाँच सामानिक देव इन्द्रस्थान को प्राप्त करके विचरते हैं, वह इन्द्रस्थान जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट छ मास तक विरहित रहता है मुनि दीपरत्नसागर कृत्" (चन्द्रप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 47
SR No.034684
Book TitleAgam 17 Chandrapragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 17, & agam_chandrapragnapti
File Size2 MB
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