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आगम सूत्र १७, उपांगसूत्र-६, 'चन्द्रप्रज्ञप्ति'
प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र प्राभृत-१-प्राभृतप्राभृत-८ सूत्र- ३४
हे भगवन् ! सर्व मंडलपद कितने बाहल्य से, कितने आयाम विष्कंभ से तथा कितने परिक्षेप से युक्त हैं ? इस विषय में तीन प्रतिपत्तियाँ हैं । पहला परमतवादी कहता है कि सभी मंडल बाहल्य से एक योजन, आयाम-विष्कम्भ से ११३३ योजन और परिक्षेप से ३३९९ योजन है । दूसरा बताता है कि सर्वमंडल बाहल्य से एक योजन, आयामविष्कम्भ से ११३४ योजन और परिक्षेप से ३४०२ योजन है । तीसरा मतवादी इसका आयामविष्कम्भ ११३५ योजन और परिक्षेप ३४०५ योजन कहता है । ..... भगवंत प्ररूपणा करते हैं कि
यह सर्व मंडलपद एक योजन के ४८/६१ भाग बाहल्य से अनियत आयामविष्कम्भ और परिक्षेपवाले कहे गए हैं । क्योंकि यह जंबूद्वीप सर्वद्वीप समुद्रों से घीरा हुआ है । जब ये सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल को उपसंक्रमीत करके गति करता है तब वे सभी मंडलपद एक योजन के अडतालीश एकसट्ठांश भाग बाहल्य से, ९९६४० योजन विष्कम्भ से और ३१५०८९ योजन से किंचित् अधिक परिक्षेपवाले होते हैं, उस समय परमप्रकर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त का दिन और बारह मुहर्त की रात्रि होती है । निष्क्रमण करता हुआ सूर्य नए संवत्सर को प्राप्त करके प्रथम अहोरात्र में जब अभ्यन्तर अनन्तर मंडल से उप-संक्रमण करके गति करता है तब वह मंडलपद के एक योजन के ४८/६१ भाग बाहल्य से, ९९६४५ योजन तथा एक योजन के पैंतीश एकसट्ठांश भाग आयाम विष्कम्भ से और ३१५१०७ योजन से किंचित् हीन परीक्षेपवाला होता है । दिन और रात्रि प्रमाण पूर्ववत् जानना।
वहीं सूर्य दूसरे अहोरात्र में तीसरे मंडल में निष्क्रमण करके गति करता है तब एक योजन के ४८/६१ भाग बाहल्य से, ९९६५१ योजन एवं एक योजन के ९/६१ भाग आयामविष्कम्भ से तथा ३१५-१२५ योजन परिक्षेप से कहे हुए हैं । दिन और रात्रि पूर्ववत् । इस प्रकार से इसी उपाय से निष्क्रमीत सूर्य अनन्तर-अनन्तर मंडल में गति करता है । उस समय पाँच योजन और एक योजन के ३५/६१ भाग विष्कम्भ वृद्धि करते करते अट्ठारह-अट्ठारह योजन वृद्धि करते सर्वबाह्य मंडल में पहुँचते हैं । जब वह सूर्य बाह्य मंडल में उपसंक्रमण करके गति करता है तब वह मंडलपद एक योजन के ४८/६१ भाग बाहल्य से, १००-६६० योजन आयामविष्कम्भ से तथा ३१८३१५ योजन परिक्षेप से युक्त होता है । उस समय उत्कृष्ट १८ मुहूर्त की रात्रि, जघन्य १२मुहूर्त्त का दिन होता है । यह हुए छ मास
इसी प्रकार वह सूर्य दूसरे छ मासमें सर्व बाह्यमंडल से सर्वाभ्यन्तर मंडलमें प्रवेश करता है । प्रथम अहोरात्र में जब वह सूर्य उपसंक्रमण कर अनन्तर मंडल पदमें प्रविष्ट होता है तब मंडल पदमें एक योजन के अडचत्तालीश एकसट्रांश भाग बाहल्य से हानि होती है. १००६५४ योजन एवं एक योजन का २६/६१ भाग आयामविष्कम्भ से तथा ३१८२५७ योजन परिक्षेप से युक्त होता है । रात्रि-दिन का प्रमाण पूर्ववत् जानना । प्रविश्यमाण वह सूर्य अनन्तरअनन्तर एक एक मंडल में एक एक अहोरात्र में संक्रमण करता हुआ पूर्व गणित से सर्वाभ्यन्तर मंडल में पहुँचता है तब वह मंडल पद एक योजन के अडचत्तालीश एकसट्रांश भाग बाहल्य से, ९९६४० योजन आयामविष्कम्भ से तथा ३१५०७९ परिक्षेप से होता है। शेष पूर्ववत् यावत् यह हुआ आदित्य संवत्सर ।
यह सर्व मंडलवृत्त एक योजन के अडचत्तालीश एकसट्ठांश भाग बाहल्य से होते हैं। सभी मंडल के अन्तर दो योजन विष्कम्भवाले हैं । यह पूरा मार्ग १८३ से गुणित करने से ५१० योजन का होता है। यह अभ्यन्तर मंडल-वृत्त से बाह्यमंडलवृत्त और बाह्य से अभ्यन्तर मंडलवृत्त मार्ग कितना है ? यह मार्ग ११५ योजन और एक योजन का अडचत्तालीश एकसट्रांश भाग जितना है।
प्राभृत-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत्" (चन्द्रप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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