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आगम सूत्र १७, उपांगसूत्र-६, 'चन्द्रप्रज्ञप्ति'
प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र इसी तरह सर्वबाह्य मंडल में भी जानना । विशेष यह की लवणसमुद्र में १३३ योजन क्षेत्र को अवगाहीत करता है । उत्कृष्ट १८ मुहूर्त की रात्रि और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है
प्राभृत-१-प्राभृतप्राभृत-६ सूत्र-३२
__ हे भगवन् ! क्या सूर्य एक-एक रात्रिदिन में प्रविष्ट होकर गति करता है ? इस विषय में सात प्रतिपत्तियाँ हैं। जैसे की कोई एक परमतवादी बताता है की दो योजन एवं बयालीस का अर्द्धभाग तथा एक योजन के १८३ भाग क्षेत्र को एक-एक रात्रि में विकम्पीत करके सूर्य गति करता है । अन्य एक मत में यह प्रमाण अर्द्धतृतीय योजन कहा है। तीसरा कोई तीन भाग कम तीन योजन परिमित क्षेत्र में एक-एक रात्रि में सूर्य की गति बताता है । चौथा कोई यह प्रमाण तीन योजन और एक योजन के सैंतालीस का अर्द्धभाग तथा एक योजन का १८३ भाग क्षेत्र का एक-एक रात्रिदिन में विकम्पन करके सूर्य गति बताता है । पाँचवा इस गति का प्रमाण अर्द्ध योजन का बताता है । छठ्ठा मतवादी चार भाग कम चार योजन प्रमाण कहता है और सातवां मतवादी कहता है की चार योजन तथा पाँचवा अर्द्ध योजन एवं एक योजन का १८७वां भाग क्षेत्र को एक एक अहोरात्र में विकम्पन करके सूर्य गति करता है।
___ भगवंत फरमाते हैं कि दो योजन तथा एक योजन के 48/६१ भाग एक एक मंडल क्षेत्र का एक एक अहोरात्रमें विकम्पन कर सूर्य गति करता है । यह जम्बूद्वीप सर्वद्वीप समुद्रों से घीरा हुआ है, उसमें जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल को उपसंक्रमण कर गति करता है उस समय परमप्रकर्ष प्राप्त उत्कृष्ट १८ मुहूर्त का दिन और जघन्या १२ मुहूर्त की रात्रि होती है । निष्क्रमण करता हुआ सूर्य नए संवत्सर का आरंभ करते सर्वाभ्यन्तर मंडल के अनन्तर ऐसे पहेले बाह्य मंडल में उपसंक्रमण से गति करता है, तब दो योजन और एक योजन के ४८/६१ भाग को एक अहोरात्रमें विकम्पन कर गति करता है, उस समय २/६१ मुहूर्त की दिन में वृद्धि और रात्रि में हानि होती है । वह सूर्य दूसरी अहोरात्रि में तीसरे मंडलमें उपसंक्रमण कर गति करता है तब दो अहोरात्रमें पाँच योजन के ३५/६१ भाग से विकम्पन कर गमन करता है, उस समय ४/६१ भाग मुहूर्त की दिन में हानि और रात्रि में वृद्धि होती है । इस प्रकार से निष्क्रमीत सूर्य अनन्तर-अनन्तर मंडल में गति करता हुआ संक्रमण करता है, तब एक अहोरात्र में दो योजन एवं एक योजन के 48/६१ भाग विकम्पन करता हुआ सर्वबाह्य मंडल में पहुँचता है । १८३ अहोरात्र में वह सूर्य ११५ योजन विकम्पन करके गति करता है । सर्वबाह्य मंडल में पहुँचता है तब परमप्रकर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अट्ठारह मुहर्त की रात्रि और जघन्य बारह मुहर्त्त का दिन होता है। यह हए प्रथम छ मास और छ मास का पर्यवसान ।
दूसरे छह मास में वह सर्वबाह्य मंडल से सर्वाभ्यन्तर मंडल में प्रवेश करता है । प्रथम अहोरात्र में अनन्तर प्रथम मंडल में प्रविष्ट होते हुए वह दो योजन और एक योजन का अडचत्तालीश एकसट्ठांश भाग क्षेत्र को विकम्पन करके गति करता है तब दो एकसट्ठांश मुहूर्त की दिन में वृद्धि और रात्रि में हानि होती है । इसी प्रकार से पूर्वोक्त कथनानुसार सर्वबाह्य मंडल की अवधि करके १८३ रात्रिदिन में वह सर्वाभ्यन्तर मंडल में संक्रमण करके पहुँचता है, तब उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्या बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । यह दूसरे छ मास हुए और ये हुआ दूसरे छ मास का पर्यवसान | यह है आदित्य संवत्सर ।
प्राभृत-१-प्राभृतप्राभृत-७ सूत्र-३३
हे भगवन् ! मंडलों की संस्थिति क्या है ? मंडल संस्थिति सम्बन्ध में आठ प्रतिपत्तियाँ हैं । कोई कहता है कि सर्वमंडल की संस्थिति समचतुरस्र है। कोई विषम चतुरस्र संस्थानवाली बताते हैं । कोई समचतुष्कोण की तो कोई उसे विषम चतुष्कोण की कहता है । कोई उसे समचक्रवाल बताता है तो कोई विषम-चक्रवाल संस्थित कहते हैं । सातवां अर्धचक्रवाल संस्थित कहता है तो आठवां मतवादी उसे छत्राकार बताते हैं ।
इन सब में जो मंडल की संस्थिति को छत्राकार बताते हैं वह मेरे मत से तुल्य हैं । यह कथन पूर्वोक्त नयरूप उपाय से ठीक तरह समझना
मुनि दीपरत्नसागर कृत्" (चन्द्रप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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