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आगम सूत्र १६, उपांगसूत्र-५, 'सूर्यप्रज्ञप्ति'
प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र भारतीय सूर्य, मध्य जंबूद्वीप के पूर्वपश्चिम दिशा से विस्तारयुक्त और उत्तरदक्षिण दिशा में लम्बी जीवा के १२४ विभाग करके, दक्षिणपूर्व के मंडल के चतुर्थ भाग में ९२ संख्यावाले मंडलों में संचार करते हैं । उत्तरपश्चिम में मंडल के चतुर्थ भाग में ९१ मंडलों को भारतीय सूर्य चीर्ण करता है । यह भारतीय सूर्य, ऐरावतीय सूर्य के मंडलों को मध्य जंबूद्वीप के पूर्वपश्चिम लम्बे क्षेत्र को छेद करके उत्तरपूर्व दिग्भाग के मध्य में चतुर्भाग मंडल के ९२ मंडल को व्याप्त करके उसमें प्रतिचरण करता है । इसी प्रकार दक्षिणपूर्व दिशा में चतुर्भाग में ९१ मंडलों को प्रतिचरित करता है । उस समय यह ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से प्रतिचरित दक्षिणपश्चिम मध्य में चतुर्भाग ९२ मंडलों को प्रतिचरित करता है । और उत्तर पूर्व में ९१ मंडलों को प्रतिचरित करता है ।
इस तरह निष्क्रमण करते हुए यह दोनों सूर्य परस्पर एक दूसरे के चीर्ण क्षेत्र को प्रतिचरित नहीं करते, किन्तु प्रवेश करते हुए ये दोनों एक दूसरे के चीर्ण क्षेत्र को प्रतिचरित करते हैं।
प्राभृत-१-प्राभृतप्राभृत-४ सूत्र-२५
भारतीय एवं ऐरवतीय सूर्य परस्पर कितने अन्तर से गति करता है ? अन्तर सम्बन्धी यह छह प्रतिपत्तियाँ हैं। कोई एक परमतवादी कहता है कि ये दोनों सूर्य परस्पर एक हजार योजन के एवं दूसरे एकसो तैंतीस योजन के अन्तर
ति करते हैं । कोई एक कहते हैं कि ये एक हजार योजन एवं दूसरे १३४ योजन अंतर से गति करते हैं । कोई एक ऐसा कहते हैं कि यह अंतर एक हजार योजन एवं दूसरा १३५ योजन का है । चौथा अन्यतीर्थि का कथन है कि दोनों सूर्य एक द्वीप-समुद्र के परस्पर अंतर से गति करते हैं। कोई यह अन्तर दो-दो द्वीप समुद्रों का बतलाते हैं और छटा परतीर्थिक दोनों सूर्यों का परस्पर अन्तर तीन-तीन द्वीप समुद्रों का बतलाते हैं । भगवंत कहते हैं कि यह दोनों सूर्य की गति का अन्तर नियत नहीं है, वे जब सर्वाभ्यन्तर मंडल से निष्क्रमण करता है तब पाँच-पाँच योजन और एक योजन के पैंतीस एकसट्ठांश भाग के अन्तर से प्रत्येक मंडल में अभिवृद्धि करते हुए और बाह्य मंडल से अभ्यन्तर मंडल की तरफ प्रवेश करते हुए कम करते-करते गति करते हैं।
___ यह जंबूद्वीप सर्वद्वीप समुद्रों से परिक्षेप से घीरा हुआ है । जब ये दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल का संक्रमण करके गति करते हैं तब एक प्रकार से ९९००० योजन का और दूसरा ६४० योजन का परस्पर अन्तर होता है । उस समय उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । निष्क्रम्यमान वे सूर्यों नूतन संवत्सर के पहले अहोरात्र में अभ्यन्तर मंडल के प्रथम मंडल का उपसंक्रमण करके जब दूसरे मंडल में गति करता है, तब ९९६४५ योजन एवं एक योजन के पैंतीस एकसट्ठांश भाग जितना परस्पर अन्तर रखके यह दोनों सूर्य गति करते हैं । उस समय दो एकसट्ठांश मुहूर्त दिन की हानि और रात्रि की वृद्धि होती है । जब यह दोनों सूर्य सर्वा-भ्यन्तर निष्क्रमण करके दूसरे मंडल से तीसरे मंडल में गति करते हैं, तब ९९६५१ योजन एवं एक योजन के नव एकसट्ठांश भाग का परस्पर अन्तर होता है। उस समय चार एकसट्रांश मुहर्त की दिन में हानि और रात्रि में वृद्धि होती है।।
इसी अनुक्रम से निष्क्रम्यमाण दोनों सूर्य अनन्तर-अनन्तर मंडल में गति करते हैं तब पाँच-पाँच योजन और एक योजन के पैंतीश एकसट्ठांश भाग परस्पर अन्तर में वृद्धि होती है और १००६६० योजन का परस्पर अन्तर हो जाता है, तब उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त की रात्रि और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । यहाँ छ मास पूर्ण होते हैं । दूसरे छ मास का आरंभ होता है तब दोनों सूर्य सर्वबाह्य मंडल से सर्वाभ्यन्तर मंडल की तरफ संक्रमण करते हुए गति करते हैं । उस समय दोनों सूर्य का परस्पर अन्तर १००६५४ योजन एवं एक योजन के छब्बीश एकसट्ठांश भाग का होता है और अट्ठारह मुहर्त की रात्रि के दो एकसट्रांश मुहर्त की हानि तथा बारह मुहर्त के दिन में दो एकसट्रांश मुहर्त्त की वृद्धि होती है।
इसी अनुक्रम से संक्रमण करते हुए दोनों सूर्य अभ्यन्तर मंडल की तरफ प्रविष्ट होते हैं तब दोनों सूर्यों का परस्पर अन्तर पाँच-पाँच योजन एवं एक योजन के पैंतीश एकसट्ठांश भाग प्रत्येक मंडल में कम होता रहता है । जब वह दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल में प्रविष्ट कर जाते हैं उस समय दोनों के बीच ९९६४० योजन का अन्तर रहता है और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (सूर्यप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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