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आगम सूत्र १६, उपांगसूत्र-५, 'सूर्यप्रज्ञप्ति'
प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र सूत्र-१४-१७
दसवें प्राभृत के पहले प्राभृतप्राभृत में नक्षत्रों की आवलिका, दूसरे में मुहूर्त्ताग्र, तीसरे में पूर्व पश्चिमादि विभाग, चौथे में योग, पाँचवे में कुल, छठे में पूर्णमासी, सातवें में सन्निपात और आठवे में संस्थिति, नवमें प्राभृतप्राभृत में ताराओं का परिमाण, दसवे में नक्षत्र नेता, ग्यारहवे में चन्द्रमार्ग, बारहवे में अधिपति देवता और तेरहवे में मुहूर्त, चौदहवे में दिन और रात्रि, पन्द्रहवे में तिथियाँ, सोलहवे में नक्षत्रों के गोत्र, सत्तरहवे में नक्षत्र का भोजन, अट्ठारहवे में सूर्य की चार-गति, उन्नीसवे में मास और बीसवे में संवत्सर, एकवीस में प्राभृतप्राभृत में नक्षत्रद्वार तथा बाईसवे में नक्षत्रविचय इस तरह दसवें प्राभत में बाईस अधिकार हैं।
प्राभृत-१-प्राभृतप्राभृत-१ सूत्र-१८
आपके अभिप्राय से मुहर्त की क्षय-वृद्धि कैसे होती है ? यह ८१९ मुहर्त एवं एक मुहर्त्त का २७/६७ भाग से होती है। सूत्र - १९
जिस समय में सूर्य सर्वाभ्यन्तर मुहूर्त से नीकलकर प्रतिदिन एक मंडलाचार से यावत् सर्वबाह्य मंडल में तथा सर्वबाह्य मंडल से अपसरण करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करता है, यह समय कितने रात्रि-दिन का कहा है? यह ३६६ रात्रिदिन का है। सूत्र - २०
पूर्वोक्त कालमान में सूर्य कितने मंडलों में गति करता है ? वह १८४ मंडलों में गति करता है । १८२ मंडलों में दो बार गमन करता है । सर्व अभ्यन्तर मंडल से नीकलकर सर्व बाह्य मंडल में प्रविष्ट होता हुआ सूर्य सर्व अभ्य-न्तर तथा सर्व बाह्य मंडल में दो बार गमन करता है। सूत्र - २१
सूर्य के उक्त गमनागमन के दौरान एक संवत्सर में अट्ठारह मुहूर्त प्रमाणवाला एक दिन और अट्ठारह मुहूर्त प्रमाण की एक रात्रि होती है । तथा बारह मुहूर्त का एक दिन और बारह मुहूर्त्तवाली एक रात्रि होती है। पहले छ मास में अट्ठारह मुहूर्त्त की एक रात्रि और बारह मुहूर्त का एक दिन होता है । तथा दूसरे छ मास में अट्ठारह मुहूर्त का दिन
और बारह मुहूर्त की एक रात्रि होती है । लेकिन पहले या दूसरे छ मास में पन्द्रह मुहूर्त का दिवस या रात्रि नहीं होती इसका क्या हेतु है ? वह मुझे बताईए।
यह जंबूद्वीप नामक द्वीप है । सर्व द्वीप समुद्रों से घीरा हुआ है । जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करके गति करता है, तब परमप्रकर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट सर्वाधिक अट्ठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । जब वहीं सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल से नीकलकर नये सूर्यसंवत्सर को आरंभ करके पहले अहोरात्र में सर्वाभ्यन्तर मंडल के अनन्तर मंडल में संक्रमण करके गति करता है तब अट्ठारह मुहूर्त के दिन में दो एक सट्ठांश भाग न्यून होते हैं और बारह मुहूर्त की रात्रि में दो एकसट्ठांश भाग की वृद्धि होती है । इसी तरह और एक मंडल में संक्रमण करता है तब चार एकसट्ठांश मुहूर्त का दिन घटता है और रात्रि बढ़ती है । इसी तरह एक-एक मंडल में आगे-आगे सूर्य का संक्रमण होता है और अट्ठारसमुहूर्त के दिन में दो एकसट्ठांश दो एकसट्ठांश मुहूर्त की हानि होती है और उतनी ही रात्रि में वृद्धि होती है । इसी तरह सर्वाभ्यन्तर मंडल से नीकलकर सर्वबाह्य मंडल में जब सूर्य संक्रमण करता है तब १८३ रात्रिदिन पूर्ण होते हैं और तीनसो छासठ मुहूर्त के एकसट्ठ भाग मुहूर्त प्रमाण दिन की हानि और रात्रि की वृद्धि होती है, उस समय उत्कृष्ट १८ मुहूर्त की रात्रि और १२ मुहूर्त का दिन होता है । इस तरह पहले छ मास पूर्ण होते हैं।
पहले छ मास पूर्ण होते ही सूर्य बाह्यमंडल से सर्वाभ्यन्तर मंडल की ओर गमन करता है । जब वह अनन्तर पहले अभ्यन्तर मंडल में संक्रमण करता है, तब दो एकसट्ठांश मुहूर्त रात्रि की हानि होती है और दिन में वृद्धि होती है। इसी तरह इसी अनुक्रम से दो एकसट्ठांश मुहूर्त रात्रि की हानि और दिन की वृद्धि होते होते जब सूर्य सर्वाभ्य-न्तर मुनि दीपरत्नसागर कृत् (सूर्यप्रज्ञप्ति)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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