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आगम सूत्र १६, उपांगसूत्र-५, 'सूर्यप्रज्ञप्ति'
प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र अग्निवेश, रोहिणी का गौतम, मृगशिर्ष का भारद्वाज, आ का लौहित्यायन, पुनर्वसु का वाशिष्ठ, पुष्य का कृष्यायन, आश्लेषा का मांडव्यायन, मघा का पिंगलायन, पूर्वाफाल्गुनी का मिल्लायन, उत्तराफाल्गुनी का कात्यायन, हस्त का कौशिक, चित्रा का दर्भियायन, स्वाति का चामरच्छायण, विशाखा का शृंगायन, अनुराधा का गोलव्वायण, ज्येष्ठा का तिष्यायन, मूल का कात्यायन, पूर्वाषाढ़ा का वात्स्यायन और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का व्याघ्रायन गोत्र कहा गया है।
प्राभृत-१०- प्राभृत-प्राभृत-१७ सूत्र-७०
___ हे भगवन् ! नक्षत्र का भोजना किस प्रकार का है ? इन अट्ठाईस नक्षत्रों में कृतिका नक्षत्र दहीं और भात खाकर, रोहिणी-धतूरे का चूर्ण खाकर, मृगशिरा-इन्द्रावारुणि चूर्ण खाके, आर्द्रा-मक्खन खाके, पुनर्वसु-घी खाके, पुष्य-खीर खाके, अश्लेषा-अजमा का चूर्ण खाके, मघा-कस्तूरी खाके, पूर्वाफाल्गुनी-मंडुकपर्णिका चूर्ण खाके, उत्तराफाल्गुनी-वाघनखी का चूर्ण खाके, हस्त-चावल की कांजी खाके, चित्रा-मूंग की दाल खाके, स्वाति-फल खाके, विशाखा-अगस्ति खाके, अनुराधा-मिश्रिकृत कुर खाके, ज्येष्ठा-बोर का चूर्ण खाके, मूल (मूलापन्न)-शाक खाके, पूर्वाषाढ़ा-आमले का चूर्ण खाके, उत्तराषाढ़ा-बिल्वफल खाके, अभिजीत-पुष्प खाके, श्रवण-खीर खाके, घनिष्ठाफल खाके, शतभिषा-तुवेर खाके, पूर्वाप्रौष्ठपदा-करेला खाके, उत्तराप्रौष्ठपदा-वराहकंद खाके, रेवती-जलचर वनस्पति खाके, अश्विनी-वृत्तक वनस्पति चूर्ण खाके और भरणी नक्षत्र में तिलतन्दुक खाकर कार्य को सिद्ध करना ।
प्राभृत-१० - प्राभृत-प्राभृत-१८ सूत्र-७१
हे भगवन् ! गति भेद किस प्रकार से है ? गतिभेद (चार) दो प्रकार से है-सूर्यचार और चन्द्रचार | चंद्र चारपाँच संवत्सरात्मक युग काल में अभिजीत नक्षत्र ६७ चार से चंद्र का योग करता है, श्रवण नक्षत्र ६७ चार से चन्द्र का योग करता है यावत् उत्तराषाढ़ा भी ६७ चार से चन्द्र के साथ योग करता है । आदित्यचार-भी इसी प्रकार समझना, विशेष यह कि उनमें पाँच चार (गतिभेद) कहना ।
प्राभृत-१० - प्राभृत-प्राभृत-१९ सूत्र-७२-७४
हे भगवन् ! मास के नाम किस प्रकार से हैं ? एक-एक संवत्सर में बारह मास होते हैं; उसके लौकिक और लोकोत्तर दो प्रकार के नाम हैं । लौकिक नाम-श्रावण, भाद्रपद, आसोज, कार्तिक, मृगशिर्ष, पौष, महा, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और अषाढ़ । लोकोत्तर नाम इस प्रकार हैं-अभिनन्द, सुप्रतिष्ठ, विजय, प्रीतिवर्द्धन, श्रेयांस, शिव, शिशिर, और हैमवान् तथा-वसन्त, कुसुमसंभव, निदाघ और बारहवें वनविरोधि ।
प्राभृत-१० - प्राभृत-प्राभृत-२० सूत्र-७५
हे भगवन् ! संवत्सर कितने हैं ? पाँच - नक्षत्रसंवत्सर, युगसंवत्सर, प्रमाणसंवत्सर, लक्षणसंवत्सर, और शनैश्चरसंवत्सर। सूत्र-७६-८५
नक्षत्रसंवत्सर बारह प्रकार का है-श्रावण, भाद्रपद से लेकर आषाढ़ तक । बृहस्पति महाग्रह बारह संवत्सर में सर्व नक्षत्र मंडल पूर्ण करता है।
युग संवत्सर पाँच प्रकार का है | चांद्र, चांद्र, अभिवर्धित, चांद्र और अभिवर्धित । प्रत्येक चान्द्र संवत्सर चौबीस-चौबीस पर्व (पक्ष) के और अभिवर्धित संवत्सर छब्बीस-छब्बीस पर्व के होते हैं । इस प्रकार सब मिलाकर पंच संवत्सर का एक युग १२४ पर्वो (पक्षों) का होता है।
प्रमाण संवत्सर पाँच प्रकार का है । नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, आदित्य और अभिवर्धित ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (सूर्यप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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