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आगम सूत्र १६, उपांगसूत्र-५, 'सूर्यप्रज्ञप्ति'
प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र
प्राभृत-६
सूत्र-३७
सूर्य की प्रकाश संस्थिति किस प्रकार की है ? इस विषय में अन्य मतवादी पच्चीश प्रतिपत्तियाँ हैं, वह इस प्रकार हैं - (१) अनु समय में सूर्य का प्रकाश अन्यत्र उत्पन्न होता है, भिन्नता से विनष्ट होता है, (२) अनुमुहूर्त में अन्यत्र उत्पन्न होता है, अन्यत्र नाश होता है, (३) रात्रिदिन में अन्यत्र उत्पन्न होकर अन्यत्र विनाश होता है, (४) अन्य पक्ष में, (५) अन्य मास में, (६) अनुऋतु में, (७) अनुअयन में, (८) अनुसंवत्सर में, (९) अनुयुग में, (१०) अनुशत-वर्ष में, (११)
नुसहस्रवर्षमें, (१२) अनुलक्षवर्षमें, (१३) अनुपूर्वमें, (१४) अनुशतपूर्वमें, (१५) अनुसहस्रपूर्व में, (१६) अनुलक्षपूर्वमें, (१७) अनुपल्योपम मैं, (१८) अनुशतपल्योपम में, (१९) अनुसहस्रपल्योपम में, (२०) अनुलक्षपल्योपम में, (२१) अनुसागरोपम में, (२२) अनुशत सागरोपम में, (२३) अनुसहस्रसागरोपम में, (२४) अनुलक्षसागरोपम में, (२५) अनुउत्सर्पिणी अवसर्पिणी में सूर्य का प्रकाश अन्यत्र उत्पन्न होता है, अन्यत्र विनष्ट होता है।
भगवंत फरमाते हैं कि-त्रीश-त्रीश मुहूर्त्त पर्यन्त सूर्य का प्रकाश अवस्थित रहता है, इसके बाद वह अनवस्थित हो जाता है । छह मास पर्यन्त सूर्य का प्रकाश न्यून होता है और छह मास पर्यन्त बढ़ता रहता है । क्योंकि जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल से निष्क्रमण करके गमन करता है, उस समय उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्या बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । निष्क्रम्यमान सूर्य नए संवत्सर को प्राप्त करके प्रथम अहोरात्रि में अभ्यन्तर मंडल से उपसंक्रमण करके जब गमन करता है तब एक अहोरात्र में दिवस क्षेत्र के प्रकाश को एक भाग न्यून करता है और रात्रि में एक भाग की वृद्धि होती है, मंडल का १८३० भाग से छेद करता है । उस समय दो-एकसट्ठांश भाग दिन की हानि और रात्रि की वृद्धि होती है । वही सूर्य जब दूसरे अहोरात्र में निष्क्रमण करके तीसरे मंडल में गति करता है तब दो अहोरात्र में दो भाग प्रमाण दिवस क्षेत्र की हानि और रात्रि क्षेत्र की वृद्धि होती है | मंडल का १८३० भाग से छेद होता है । चार एकसट्ठांश मुहूर्त प्रमाण दिन की हानि और रात्रि की वृद्धि होती है।
निश्चय से इसी अभिलाप से निष्क्रम्यमान सूर्य अनन्तर अनन्तर मंडलों में गमन करता हुआ, एक एक अहोरात्र में एक एक भाग प्रमाण दिवस क्षेत्र को न्यून करता और रात्रिक्षेत्र को बढ़ाता हुआ सर्वबाह्य मंडल में उपसंक्रमण करके गमन करता है । १८३ अहोरात्र में १८३ भाग प्रमाण दिवस क्षेत्र को कम करता है और उतना ही रात्रि क्षेत्र में वृद्धि करता है । उस समय परमप्रकर्ष प्राप्त अट्ठारह मुहूर्त की रात्रि और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । यह हुए प्रथम छ मास।
दूसरे छ मास का आरंभ होता है तब सूर्य सर्वबाह्य मंडल से सर्वाभ्यन्तर मंडल में प्रवेश करने का आरम्भ करता है । प्रवेश करता हुआ सूर्य जब अनन्तर मंडल में उपसंक्रमण करके गमन करता है तब एक अहोरात्र में अपने प्रकाश से रात्रि क्षेत्र का एक भाग कम करता है और दिवस क्षेत्र के एक भाग की वृद्धि करता है । १८३० भाग से छेद करता है । दो एकसट्ठांश मुहूर्त से रात्रि की हानि और दिन की वृद्धि होती है । इसी प्रकार से पूर्वोक्त पद्धति से उपसंक्रमण करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मंडल में पहुँचता है तब १८३० भाग से छेद कर और एक एक महोरात्र में दिवस क्षेत्र की वृद्धि और रात्रिक्षेत्र की हानि करता हुआ १८३ अहोरात्र होते हैं । सर्वाभ्यन्तर मंडल में गमन करता है तब उत्कृष्ट मुहूर्त का दिन और जघन्या बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । यह हुए दूसरे छ मास यावत् आदित्य संवत्सर का पर्यवसान ।
प्राभृत-६-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (सूर्यप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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