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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' छोड़े गए पंचरंगे पुष्पपुंजों को बिखेर कर रज-प्रांगण यावत् परव को सब तरफ से समलंकृत कर देता है उसी प्रकार से पुष्पवर्षक बादलों की विकुर्वणा की । वे अभ्र-बादलों की तरह गरजने लगे, यावत् योजन प्रमाण गोलाकार भूभाग में दीप्तिमान जलज और स्थलज पंचरंगे पुष्पों को प्रभूत मात्रा में इस तरह बरसाया कि सर्वत्र उनकी ऊंचाई एक हाथ प्रमाण हो गई एवं डंडियाँ नीचे और पंखुड़ियाँ ऊपर रहीं । पुष्पवर्षा करने के पश्चात् मनमोहक सुगन्ध वाले काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुष्क, तरुष्क-लोभान और धूप को जलाया । उनकी मनमोहक सुगन्ध से सारा प्रदेश महकने लगा, श्रेष्ठ सुगन्ध के कारण सुगन्ध की गुटिका जैसा बन गया । दिव्य एवं श्रेष्ठ देवों के अभिगमन योग्य हो गया । इस प्रकार स्वयं करके और दूसरों से करवा करके उन्होंने अपने कार्य को पूर्ण किया
इसके पश्चात् वे आभियोगिक देव श्रमण भगवान महावीर के पास आए । श्रमण भगवान महावीर को तीन बार यावत वंदन नमस्कार कर, आम्रशालवन चैत्य से नीकले, उत्कृष्ट गति से यावत चलते-चलते जहाँ सौधर्म स्वर्ग था, सूर्याभ विमान था, सुधर्मा सभा थी और उसमें भी जहाँ सूर्याभदेव था वहाँ आए और दोनों हाथ जोड आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय विजय घोष से सूर्याभदेव का अभिनन्दन करके आज्ञा को वापस लौटाया। सूत्र - ११
आभियोगिक देवों से इस अर्थ को सूनने के पश्चात् सूर्याभदेव ने हर्षित, सन्तुष्ट यावत् हर्षातिरेक से प्रफुल्ल हृदय हो पदाति-अनीकाधिपति को बुलाया और बुलाकर कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही सूर्याभ विमान की सुधर्मा सभा में स्थित मेघसमूह जैसी गम्भीर मधुर शब्द करने वाली एक योजन प्रमाण गोलाकार सुस्वर घंटा को तीन बार बजा-बजाकर उच्चातिउच्च स्वर में घोषणा करते हुए यह कहो कि-हे सूर्याभ विमान में रहने वाले देवों और देवियों ! सर्याभदेव आज्ञा देता है कि देवो! जम्ब दीप के भरत क्षेत्र में स्थित आमलकल्पा नग वन चैत्य में बिराजमान श्रमण भगवान महावीर की वंदना करने के लिए सूर्याभदेव जा रहा है । अत एव हे देवानुप्रियो ! आप लोग समस्त ऋद्धि यावत् अपने-अपने परिवार सहित अपने-अपने यान-विमानों में बैठकर बिना विलंब के तत्काल सूर्याभ देव के समक्ष उपस्थित हो जाओ। सूत्र-१२
तदनन्तर सूर्याभदेव द्वारा इस प्रकार से आज्ञापित हुआ वह पदात्यनीकाधिपति देव सूर्याभदेव की इस आज्ञा को सूनकर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्ल-हृदय हुआ और विनयपूर्वक आज्ञावचनों को स्वीकार करके सूर्याभ विमान में जहाँ सुधर्मा सभा थी और उसमें भी जहाँ मेघमालवत् गम्भीर मधुर ध्वनि करने वाली योजन प्रमाण गोल सुस्वर घंटा थी, वहाँ आकर सुस्वर घंटा को तीन बार बजाया । तब उसकी ध्वनि से सूर्याभ विमान के प्रासादविमान आदि से लेकर कोने-कोने तक के एकान्तशांत स्थान लाखों प्रतिध्वनियों से गूंज उठे । तब उस सुस्वर घंटा की
तिध्वनि से सदा सर्वदा रति-क्रिया में आसक्त, नित्य प्रमत्त, एवं विषयसख में मर्छित सर्याभविमानवासी देवों और देवियों ने घंटानाद से शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होकर घोषणा के विषय में उत्पन्न कौतूहल की शांति के लिए कान और मन को केन्द्रित किया तथा घंटारव के शांतप्रशांत हो जाने पर उस पदात्यानीकाधिपति देव ने जोर-जोर से उच्च शब्दों में उद्घोषणा करते हए इस प्रकार कहा
आप सभी सूर्याभविमानवासी देव और देवियाँ सूर्याभ विमानाधिपति की इस हितकारी सुखप्रद घोषणा को हर्षपूर्वक सुनिए-हे देवानुप्रियो! सूर्याभदेवने आप सबको आज्ञा दी है कि सूर्याभदेव जम्बूद्वीपमें वर्तमान भरत क्षेत्रमें स्थित आमलकल्पा नगरी के आम्रशालवन चैत्यमें बिराजमान भगवान महावीर की वन्दना करने के लिए जा रहे हैं । अत एव हे देवानुप्रियो! आप सभी समस्त ऋद्धि युक्त होकर अविलम्ब सूर्याभदेव समक्ष उपस्थित हो जाए सूत्र - १३
तदनन्तर पदात्यनीकाधिपति देव से इस बात को सुनकर सूर्याभविमानवासी सभी वैमानिक देव और देवियाँ हर्षित, सन्तुष्ट यावत् विकसितहृदय हो, कितने वन्दना करने के विचार से, कितने पर्युपासना की आकांक्षा से, कितने सत्कार की भावना से, कितने सम्मान की ईच्छा से, कितने जिनेन्द्र भगवान प्रति कुतूहलजनित भक्ति
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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