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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' सूत्र-८४
इसके बाद वह दृढ़प्रतिज्ञ बालक बालभाव से मुक्त हो परिपक्व विज्ञानयुक्त, युवावस्थासंपन्न हो जाएगा। बहत्तर कलाओं में पंडित होगा, बाल्यावस्था के कारण मनुष्य के जो नौ अंग-जागृत हो जाएंगे । अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में कुशल हो जाएगा, वह गीत का अनुरागी, गीत और नृत्य में कुशल हो जाएगा । अपने सुन्दर वेष से शृंगार का आगार-जैसा प्रतीत होगा । उसकी चाल, हास्य, भाषण, शारीरिक और नेत्रों की चेष्टाएं आदि सभी संगत होंगी । पारस्परिक आलाप-संलाप एवं व्यवहार में निपुण-कुशल होगा । अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहुयुद्ध करने एवं अपनी भुजाओं से विपक्षी का मर्दन करने में सक्षम एवं भोग भोगने की सामर्थ्य से संपन्न हो जाएगा तथा साहसी ऐसा हो जाएगा । भयभीत नहीं होगा । तब उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक को बाल्यावस्था से मुक्त यावत् विकाल-चारी जानकर माता-पिता विपुल अन्नभोगों, पानभोगों, प्रासादभोगों, वस्त्रभोगों और शय्याभोगों के योग्य भोगों को भोगने के लिए आमंत्रित करेंगे।
तब वह दृढ़प्रतिज्ञ दारक उन विपुल अन्न रूप भोग्य पदार्थों यावत् शयन रूप भोग्य पदार्थों में आसक्त नहीं होगा, गृद्ध नहीं होगा, मूर्च्छित नहीं होगा और अनुरक्त नहीं होगा । जैसे कि नीलकमल, पद्मकमल यावत् सहस्रपत्रकमल कीचड़ में उत्पन्न होते हैं और जल में वृद्धिगत होते हैं, फिर भी पंकरज और जलरज से लिप्त नहीं होते हैं, इसी प्रकार वह दृढ़प्रतिज्ञ दारक भी कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों के बीच लालन-पालन किये जाने पर भी उन कामभोगों में एवं मित्रों, ज्ञातिजनों, निजी-स्वजन-सम्बन्धियों और परिजनों में अनुरक्त नहीं होगा । किन्तु वह तथारूप स्थविरों से केवलबोधि प्राप्त करेगा एवं मुण्डित होकर, अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार करेगा । ईर्यासमिति आदि अनगारधर्म पालन करते सुहुत हुताशन की तरह अपने तपस्तेज से चमकेगा, दीप्त मान होगा।
इसके हाथ ही अनुत्तर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अप्रतिबद्ध विहार, आर्जव, मार्दव, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति सर्व संयम एवं निर्वाण की प्राप्ति जिसका फल है ऐसे तपोमार्ग से आत्मा को भावित करते हुए भगवान् (दृढ़प्रतिज्ञ) को अनन्त, अनुत्तर, सकल, परिपूर्ण, निरावरण, निर्व्याघात, अप्रतिहत, सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होगा । तब वे दृढ़प्रतिज्ञ भगवान अर्हत्, जिन, केवली हो जाएंगे । जिसमें देव, मनुष्य तथा असुर आदि रहते हैं ऐसे लोक की समस्त पर्यायों को वे जानेंगे । आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उपपात, तर्क, क्रिया, मनोभावों, क्षयप्राप्त, प्रतिसेवित, आविष्कर्म, रहःकर्म आदि, प्रकट और गुप्त रूप से होने वाले उस-उस मन, वचन और कायभोग में विद्यमान लोकवर्ती सभी जीवों के सर्वभावों को जानते-देखते हुए विचरण व
तत्पश्चात् वे दृढ़प्रतिज्ञकेवली इस प्रकार के विहार से विचरण करते अनेकवर्षों तक केवलिपर्यायका पालन कर, आयु के अंत को जानकर अपने अनेक भक्तों-भोजनों का प्रत्याख्यान व त्याग करेंगे, अनशन द्वारा बहत से भोजनों का छेदन करेंगे, जिस साध्यसिद्धि के लिए नग्नभाव, केशलोच, ब्रह्मचर्यधारण, स्नान का त्याग, दंतधावन त्याग, पादुका त्याग, भूमि पर शयन करना, काष्ठासन पर सोना, भिक्षार्थ परगृहप्रवेश, लाभ-अलाभ में सम रहना, मान-अपमान सहना, दूसरों के द्वारा की जाने वाली हीलना, निन्दा, खिंसना, तर्जना, ताड़ना, गर्दा एवं अनुकूलप्रतिकूल अनेक प्रकार के २२ परीषह, उपसर्ग तथा लोकापवाद सहन किए जाते हैं, मोक्षसाधना करके चरम श्वासोच्छ्वास में सिद्ध हो जाएंगे, मुक्त हो जाएंगे, सकल कर्ममल का क्षय और समस्त दुःखों का अंत करेंगे सूत्र-८५
गौतमस्वामी ने कहा-भगवन् ! वह ऐसा ही है जैसा आपने प्रतिपादन किया है, इस प्रकार कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया । संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । भय विजेता भगवान को नमस्कार हो । भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो । प्रज्ञप्ति भगवती को नमस्कार हो । अर्हत् भगवान पार्श्वनाथ को नमस्कार हो । प्रदेशी राजा के प्रश्नों के प्रदर्शक को नमस्कार हो ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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