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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' सा लोहा प्राप्त कर सकते हैं । अत एव देवानुप्रिय ! इस लोहे को छोड़कर सीसे का भार बांध लो।
तब उस व्यक्ति ने कहा-देवानुप्रियो ! मैं इस लोहे के भार को बहुत दूर से लादे चला आ रहा हूँ । मैंने इस लोहे को बहुत ही कसकर बांधा है । देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे को अशिथिल बंधन से बांधा है । देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे को अत्याधिक प्रगाढ़ बंधन से बांधा हे । इसलिए मैं इस लोहे को छोड़कर सीसे के भार को नहीं बांध सकता हूँ | तब दूसरे साथियों ने उस व्यक्ति को अनुकूल-प्रतिकूल सभी तरह की आख्यापना से, प्रज्ञापना से समझाया । लेकिन जब वे उस पुरुष को समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुए तो अनुक्रम से आगे-आगे चलते गए और वहाँ-वहाँ पहुँचकर उन्होंने तांबे की, चाँदी की, सोने की, रत्नों की और हीरों की खाने देखीं एवं इनको उ जैसे बहुमूल्य वस्तुएं मिलती गईं, वैसे-वैसे पहले-पहले के अल्प मूल्य वाले तांबे आदि को छोड़कर अधिक-अधिक मूल्य वाली वस्तुओं को बांधते गये । सभी खानों पर उन्होंने अपने उस दुराग्रही साथी को समझाया किन्तु उसके दूराग्रह को छुड़ाने में वे समर्थ नहीं हुए।
इसके बाद वे सभी व्यक्ति जहाँ अपना जनपद-देश था अपने-अपने नगर थे, वहाँ आए । उन्होंने हीरों को बेचा । उससे प्राप्त धन से अनेक दास-दासी, गाय, भैंस और भेड़ों को खरीदा, बड़े-बड़े आठ-आठ मंजिल के ऊंचे भवन बनवाए और इसके बाद स्नान, बलिकर्म आदि करके उन श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपरी भागों में बैठकर बजते हुए मृदंग आदि वाद्यों एवं उत्तम तरुणियों द्वारा की जा रही नृत्य-गान युक्त बत्तीस प्रकार की नाट्य लीलाओं को देखते तथा साथ ही इष्ट शब्द, स्पर्श यावत् व्यतीत करने लगे । वह लोहवाहक पुरुष भी लोहभार को लेकर अपने नगर में आया । उस लोहभार के लोहे को बेचा । किन्तु अल्प मूल्य वाला होने से उसे थोड़ा-सा धन मिला । उस पुरुष ने अपने साथियों को श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपर रहते हुए यावत् अपना समय बिताते हुए देखा । देखकर अपने आप से कहने लगा-अरे ! मैं अधन्य, पुण्यहीन, अकृतार्थ, शुभ लक्षणों से रहित, श्री-ह्री से वर्जित, हीनपुण्य चातुर्दशिक, दुरंत-प्रान्त लक्षण वाला कुलक्षणी हूँ । यदि उन मित्रों, ज्ञातिजनों और अपने हितैषियों की बात मान लेता तो आज मैं भी इसी तरह श्रेष्ठ प्रासादों में रहता हुआ यावत् अपना समय व्यतीत करता । इसी कारण हे प्रदेशी ! मैंने यह कहा है कि यदि तुम अपना दूराग्रह नहीं छोड़ोगे तो उस लोहभार को ढोने वाले दूराग्रही की तरह तुम्हें भी पश्चात्ताप करना पड़ेगा। सूत्र-७६
इस प्रकार समझाये जाने पर प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण को वन्दना की यावत् निवेदन कियाभदन्त! मैं वैसा कुछ नहीं करूँगा जिससे उस लोहभारवाहक पुरुष की तरह मुझे पश्चात्ताप करना पड़े । आप देवानुप्रिय से केवलिप्रज्ञप्त धर्म सूनना चाहता हूँ । देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वैसा करो, परन्तु विलंब मत करो । इसके पश्चात् प्रदेशी की जिज्ञासा-वृत्ति देखकर केशी कुमारश्रमणने राजाप्रदेशी को धर्मकथा सूनाकर गृही धर्म का विस्तार से विवेचन किया । राजा गृहस्थधर्म स्वीकार करके सेयविया नगरी की ओर चलने को तत्पर हुआ सूत्र - ७७
तब केशी कुमारश्रमण ने कहा-प्रदेशी ! जानते हो कितने प्रकार के आचार्य होते हैं ? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! तीन आचार्य होते हैं-कलाचार्य, शिल्पाचार्य, धर्माचार्य | प्रदेशी ! जानते हो कि इन तीन आचार्यों में से किसकी कैसी विनयप्रतिपत्ति करनी चाहिए ? हाँ, भदन्त ! जानता हूँ | कलाचार्य और शिल्पाचार्य के शरीर पर चन्दनादि का लेप और तेल आदि का मर्दन करना चाहिए, उन्हें स्नान करना चाहिए, उनके सामने पुष्प आदि भेंट रूप में रखना चाहिए, उनके कपड़ों आदि को सुरभि गन्ध से सुगन्धित करना चाहिए, आभूषणों आदि से उन्हें अलंकृत करना चाहिए, आदरपूर्वक भोजन कराना चाहिए और आजीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान देना चाहिए, एवं उनके लिए ऐसी आजीविका की व्यवस्था करनी चाहिए कि पुत्र-पौत्रादि परम्परा भी जिसका लाभ ले सके । धर्माचार्य के जहाँ भी दर्शन हों, वहीं उनको वन्दना-नमस्कार करना चाहिए, उनका सत्कार-सम्मान करना चाहिए और कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप एवं ज्ञानरूप उनकी पर्युपासना करनी चाहिए तथा अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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