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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' पृथ्वी, शिला आदि का भेदन करके बाहर से भीतर प्रविष्ट हो जाता है । इसीलिए हे प्रदेशी ! तुम इस बात की श्रद्धा करो कि जीव और शरीर भिन्न हैं। सूत्र - ६८
प्रदेशी राजा ने केशीकुमारश्रमण से कहा-बुद्धि-विशेषजन्य होने से आपकी उपमा वास्तविक नहीं है। किन्तु जो कारण मैं बता रहा हूँ, उससे जीव और शरीर की भिन्नता सिद्ध नहीं होती है । हे भदन्त ! जैसे कोई एक तरुण यावत् और अपना कार्य सिद्ध करने में निपुण पुरुष क्या एक साथ पाँच बाणों को नीकालने में समर्थ है ? केशी कुमारश्रमण-हाँ, वह समर्थ है । प्रदेशी-लेकिन वही पुरुष यदि बाल यावत् मंदविज्ञान वाला होते हुए भी पाँच बाणों को एक साथ नीकालने में समर्थ होता तो हे भदन्त ! मैं यह श्रद्धा कर सकता था कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, जीव शरीर नहीं है । लेकिन वही बाल, मंदविज्ञान वाला पुरुष पाँच बाणों को एक साथ नीकालने में समर्थ नहीं है, इसलिए भदन्त ! मेरी यह धारणा की जीव और शरीर एक ही हैं, जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है, सुप्रतिष्ठित, सुसंगत है।
केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-जैसे कोई एक तरुण यावत् कार्य करने में निपुण पुरुष नवीन धनुष, नई प्रत्यंचा और नवीन बाण से क्या एक साथ पाँच बाण नीकालने में समर्थ है ? प्रदेशी-हाँ, समर्थ है । केशी कुमारश्रमण-लेकिन वही तरुण यावत् कार्यकुशल पुरुष जीर्ण-शीर्ण, पुराने धनुष, जीर्ण प्रत्यंचा और वैसे ही जीर्ण बाण से क्या एक साथ पाँच बाणों को छोड़ने में समर्थ हो सकता है ? भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । केशी कुमारश्रमण-क्या कारण है कि जिससे यह समर्थ नहीं है ? भदन्त ! उस पुरुष के पास उपकरण अपर्याप्त हैं । तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! वह बाल यावत् मंदविज्ञान पुरुष योग्यता रूप उपकरण की अपर्याप्तता के कारण एक साथ पाँच बाणों को छोड़ने में समर्थ नहीं हो पाता है । अतः प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा-प्रतीति करो कि जीव और शरीर पृथक्-पृथक् हैं, जीव शरीर नहीं और शरीर जीव नहीं है। सूत्र - ६९
प्रदेशी राजा ने कहा-हे भदन्त ! यह तो प्रज्ञाजन्य उपमा है । किन्तु मेरे द्वारा प्रस्तुत हेतु से तो यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर में भेद नहीं है । भदन्त ! कोई एक तरुण यावत् कार्यक्षम पुरुष एक विशाल वजनदार लोहे के भार की, सीसे के भार को या रांगे के भार को उठाने में समर्थ है ? केशी कुमारश्रमण-हाँ, समर्थ है । लेकिन भदन्त ! जब वही पुरुष वृद्ध हो जाए और वृद्धावस्था के कारण शरीर जर्जरित, शिथिल, झुरियों वाला एवं अशक्त हो, चलते समय सहारे के लिए हाथ में लकड़ी ले, दंतपंक्ति में से बहुत से दांत गिर चूके हों, खाँसी, श्वास आदि रोगों से पीड़ित होने के कारण कमझोर हो, भूख-प्यास से व्याकुल रहता हो, दुर्बल और क्लान्त हो तो उस वजनदार लोहे के भार को, रांगे के भार को अथवा सीसे के भार को उठाने में समर्थ नहीं हो पाता है । हे भदन्त ! यदि वही पुरुष वृद्ध, जरा-जर्जरित शरीर यावत् परिक्लान्त होने पर भी उस विशाल लोहे के भार आदि को उठाने में समर्थ हो तो मैं यह विश्वास कर सकता था कि जीव शरीर से भिन्न है और शरीर जीव से भिन्न है, जीव और शरीर एक नहीं है । अतः मेरी यह धारणा सुसंगत है कि जीव और शरीर दोनों एक ही हैं, किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है।
केशी कुमारश्रमण ने कहा-जैसे कोई एक तरुण यावत् कार्यनिपुण पुरुष नवीन कावड़ से, रस्सी से बने नवीन सीके से और नवीन टोकनी से एक बहुत बड़े, वजनदार लोहे के भार को यावत् वहन करने में समर्थ है ? प्रदेशी-हाँ समर्थ है । हे प्रदेशी ! वही तरुण यावत् कार्यकुशल पुरुष क्या सड़ी-गली, पुरानी, कमझोर, घुन से खाई हुई कावड़ से जीर्ण-शीर्ण, दुर्बल, दीमक के खाये एवं ढीले-ढाले सीके से, और पुराने, कमझोर और दीमक लगे टोकरे से एक बड़े वजनदार लोहे के भार आदि को ले जाने में समर्थ है ? हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्यों समर्थ नहीं है ? क्योंकि भदन्त ! उस पुरुष के पास भारवहन करने के उपकरण जीर्णशीर्ण है । तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! वह पुरुष जीर्ण यावत् क्लान्त शरीर आदि उपकरणों वाली होने से एक भारी वजनदार लोहे के भार को
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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