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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' उद्यान में पधारे हुए श्रमण या माहन को जो वन्दन करता है, नमस्कार करता है यावत् उनकी पर्युपासना करता है, अर्थों को यावत् पूछता है तो हे चित्त ! वह जीव केवलिप्ररूपित धर्म को सूनने का अवसर प्राप्त कर सकता है। २. इसी प्रकार जो जीव उपाश्रय में रहे हुए श्रमण या माहन को वन्दन-नमस्कार करता है यावत् वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सून सकता है । ३. इसी प्रकार जो जीव गोचरी के लिए गए हुए श्रमण या माहन को वन्दन-नमस्कार करता है यावत् उनकी पर्युपासना करता है यावत् उन्हें प्रतिलाभित करता है, वह जीव केवलिभाषित अर्थ को सूनने का अवसर प्राप्त कर सकता है। ४. इसी प्रकार जो जीव जहाँ कहीं श्रमण या माहन का सुयोग मिलने पर हाथों, वस्त्रों, छत्ता आदि से स्वयं को छिपाता नहीं है, हे चित्त ! वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म सूनने का लाभ प्राप्त कर सकता है । लेकिन हे चित्त ! तुम्हारा प्रदेशी राजा जब पधारे हुए श्रमण या माहन के सन्मुख ही नहीं आता है यावत् अपने को आच्छादित कर लेता है, तो मैं कैसे धर्म का उपदेश दे सकूँगा?
चित्त सारथीने निवेदन किया-हे भदन्त ! किसी समय कम्बोज देशवासियोंने चार घोड़े उपहार रूप भेंट किये थे। मैंने उनको प्रदेशी राजा के यहाँ भिजवा दिया था, इन घोडों के बहाने मैं शीघ्र ही प्रदेशी राजा को आपके पास लाऊंगा । तब आप प्रदेशी राजा को धर्मकथा कहते हए लेशमात्र ग्लानि मत करना । हे भदन्त ! आप अग्लानभाव से प्रदेशी राजा को धर्मोपदेश देना । आप स्वेच्छानुसार धर्म का कथन करना । तब केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! अवसर आने पर देखा जाएगा। तत्पश्चात् चित्त सारथीने केशी कुमारश्रमण को वन्दना की, नमस्कार किया, चार घंटोंवाले अश्वरथ पर आरूढ़ हआ। जिस दिशा से आया था उसी ओर लौट गया सूत्र - ६२
तत्पश्चात् कल रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित हो जाने से जब कोमल उत्पल कमल विकसित हो चूके और धूप भी सुनहरी हो गई तब नियम एवं आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर जाज्वल्यमान तेज सहित सहस्ररश्मि दिनकर के चमकने के बाद चित्त सारथी अपने घर से नीकला । जहाँ प्रदेशी राजा था, वहाँ आया । दोनों हाथ जोड़ यावत् अंजलि करके जय-विजय शब्दों से प्रदेशी राजा का अभिनन्दन किया और बोला-कम्बोज देशवासियों ने देवानुप्रिय के लिए जो चार घोड़े उपहार-स्वरूप भेजे थे, उन्हें मैंने आप देवानुप्रिय के योग्य प्रशिक्षित कर दिया है। अत एव स्वामिन् ! पधारिए और उन घोड़ों की गति आदि चेष्टाओं का निरीक्षण कीजिए । तब प्रदेशी राजा ने कहा -हे चित्त ! तुम जाओ और उन्हीं चार घोड़ों को जोतकर अश्वरथ को यहाँ लाओ । चित्त सारथी प्रदेशी राजा के कथन को सूनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ । यावत् विकसितहृदय होते हुए उसने अश्वरथ उपस्थित किया और रथ ले आने की सूचना राजा को दी।
तत्पश्चात् वह प्रदेशी राजा चित्त सारथी की बात सुनकर और हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् मूल्यवान अल्प आभूषणों से शरीर को अलंकृत करके अपने भवन से नीकला और आकर उस चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ़ होकर सेयविया नगरी के बीचों-बीच से नीकला । चित्त सारथी ने उस रथ को अनेक योजनों दूर तक बड़ी तेज चाल से दौड़ाया-तब गरमी, प्यास और रथ की चाल से लगती हवा से व्याकुल-परेशान-खिन्न होकर प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! मेरा शरीर थक गया है । रथ को वापस लौटा लो । तब चित्त सारथी ने रथ को लौटाया और जहाँ मृगवन उद्यान था वहाँ आकर प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ! यह मृगवन उद्यान है, यहाँ रथ को रोक कर हम घोड़ों के श्रम और अपनी थकावट को अच्छी तरह से दूर कर लें। इस पर प्रदेशी राजा ने कहा-हे चित्त ! ठीक, ऐसा ही करो।
चित्त सारथी ने मृगवन उद्यान की ओर रथ को मोड़ा और फिर उस स्थान पर आया जो केशी कुमारश्रमण के निवासस्थान के पास था । वहाँ रथ को खड़ा किया, फिर घोड़ों को खोलकर प्रदेशी राजा से कहा-हे स्वामिन ! हम यहाँ घोड़ों के श्रम और अपनी थकावट को दूर कर लें । यह सूनकर प्रदेशी राजा रथ से नीचे ऊतरा, और चित्त सारथी के साथ घोड़ों की थकावट और अपनी व्याकुलता को मिटाते हुए उस ओर देखा जहाँ केशी कुमारश्रमण अतिविशाल परिषद् को धर्मोपदेश कर रहे थे। यह देखकर उसे मन-ही-मन यह विचार एवं संकल्प उत्पन्न हुआ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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