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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' स्वीकार करके सूर्याभ विमान के शंगाटकों, यावत् वनखण्डों की अर्चनिका की और अर्चनिका करके सूर्याभदेव के पास आकर आज्ञा वापस लौटाई-तदनन्तर वह सूर्याभदेव जहाँ नन्दा पुष्करिणी थी, वहाँ आया और पूर्व दिशावर्ती त्रिसोपानों से नन्दा पुष्करिणी में ऊतरा । हाथ-पैरों को धोया और फिर नन्दा पुष्करिणी से बाहर नीकलकर सुधर्मा सभा की ओर चलने के लिए उद्यत हुआ।
इसके बाद सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा और दूसरे भी बहुत से सूर्याभ विमानवासी देव-देवियों से परिवेष्टित होकर सर्व ऋद्धि यावत् तुमुल वाद्यध्वनि पूर्वक जहाँ सुधर्मा सभा थी वहाँ आया और पूर्व दिशा के द्वार से सुधर्मा सभा में प्रविष्ट हुआ । सिंहासन के समीप आया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। सूत्र-४५
तदनन्तर उस सूर्याभदेव की पश्चिमोत्तर और उत्तरपूर्व दिशा में स्थापित चार हजार भद्रासनों पर चार हजार सामानिक देव बैठे । उसके बाद सूर्याभदेव की दिशा में चार भद्रासनों पर चार अग्रमहिषियाँ बैठीं । तत्पश्चात् सूर्याभ देव के दक्षिण-पूर्वदिक कोण में अभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देव आठ हजार भद्रासनों पर बैठे । सूर्याभदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम परिषद् के दस हजार देव दस हजार भद्रासनों पर बैठे । तदनन्तर सूर्याभ देव के दक्षिण-पश्चिम दिग् भाग में बाह्य परिषद् के बारह हजार देव बारह हजार भद्रासनों पर बैठे-तत्पश्चात् सूर्याभदेव की पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपति सात भद्रासनों पर बैठे।
इसके बाद सूर्याभदेव की चारों दिशाओं में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पूर्वादि चारों दिशामें भद्रासनों पर बैठे । वे सभी आत्मरक्षक देव अंगरक्षा के लिए गाढ़बन्धन से बद्ध कवच को शरीर पर धारण करके, बाण एवं प्रत्यंचा से सन्नद्ध धनुष को हाथों में लेकर, गले में ग्रैवेयक नामक आभूषण-विशेष को पहनकर, अपने-अपने विमल और श्रेष्ठ चिह्नपट्टकों को धारण करके, आयुध और पहरणों से सुसज्जित हो, तीन स्थानों पर नमित और जुड़े हुए वज्रमय अग्रभाग वाले धनुष, दंड और बाणों को लेकर, नील-पीत-लाल प्रभा वाले बाण, धनुष, चारु चमड़े के गोफन, दंड, तलवार, पाश-जाल को लेकर एकाग्र मन से रक्षा करने में तत्पर, स्वामीआज्ञा का पालन करने में सावधान, गुप्त-आदेश पालन करने में तत्पर, सेवकोचित गुणों से युक्त, अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए उद्यत, विनयपूर्वक अपनी आचार-मर्यादा के अनुसार किंकर होकर स्थित थे। सूत्र - ४६
सूर्याभदेव के समस्त चरित को सूनने के पश्चात् भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से निवेदन किया -भदन्त ! सूर्याभदेव की भवस्थिति कितने काल की है ? गौतम ! चार पल्योपम की है । भगवन् ! सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! चार पल्योपम की है । यह सूर्याभदेव महाऋद्धि, महाद्युति, महान् बल, महायश, महासौख्य और महाप्रभाव वाला है । अहो भदन्त ! वह सूर्याभदेव ऐसा महाऋद्धि, यावत् महाप्रभावशाली है । उन्होंने पुनः प्रश्न कियासूत्र - ४७
भगवन् ! सूर्याभदेव को इस प्रकार की वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवप्रभाव कैसे मिला है ? उसने कैसे प्राप्त किया ? किस तरह से अधिगत किया है, स्वामी बना है ? वह सूर्याभदेव पूर्व भव में कौन था? उसका क्या नाम और गोत्र था ? वह किस ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, संवाह, सन्निवेश का निवासी था ? इसने ऐसा क्या दान में दिया, ऐसा अन्त-प्रान्तादि विरस आहार खाया, ऐसा क्या कार्य किया, कैसा आचरण किया और तथारूप श्रमण अथवा माहण से ऐसा कौन सा धार्मिक आर्य सुवचन सूना कि जिससे सूर्याभदेव ने यह दिव्य देवऋद्धि यावत् देवप्रभाव उपार्जित किया है, प्राप्त किया है और अधिगत किया है ? ।
दीपरत्नसागरकृत् "सूर्याभदेव विवरण' का हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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