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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्निय' गकोंमें बहुत-सी जिन-अस्थियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं । वे अस्थियाँ सूर्याभदेव एवं अन्य देव-देवियों के लिए अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं । उस माणवक चैत्य के ऊपर आठ आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र सुशोभित हो रहे हैं। सूत्र- ३७
माणवक चैत्यस्तम्भ के पूर्व दिग्भाग में विशाल मणिपीठिका बनी हुई है । जो आठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी और सर्वात्मना मणिमय निर्मल यावत् प्रतिरूप है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल सिंहासन रखा है । भद्रासन आदि आसनों रूप परिवार सहित उस सिंहासन का वर्णन करना । उस माणवक चैत्यस्तम्भ की पश्चिम दिशा में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह मणिपीठिका आठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी, सर्व मणिमय, स्वच्छ-निर्मल यावत् असाधारण सुन्दर है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक श्रेष्ठ रमणीय देवशय्या रखी हुई है। इसके प्रतिपाद अनेक प्रकार की मणियों से बने हुए हैं। स्वर्ण के पाद हैं। पादशीर्षक अनेक प्रकार की मणियों के हैं । गाते सोने की हैं। सांधे वज्ररत्नों से भरी हुई हैं । बाण विविध रत्नमयी हैं । तुली रजतमय है। ओसीसा लोहिताक्षरत्न का है । गडोपधानिका सोने की है । उस शय्या पर शरीर प्रमाण गद्दा बिछा है । उसके शिरोभाग और चरणभाग दोनों ओर तकिये लगे हैं । वह दोनों ओर से ऊंची और मध्य में नत गम्भीर गहरी है । जैसे गंगा किनारे की बालू में पाँव रखने से पाँव धंस जाता है, उसी प्रकार बैठते ही नीचे की ओर धंस जाते हैं । उस पर रजस्त्राण पड़ा रहता है-मसहरी लगी हुई है । कसीदा वाला क्षौमदुकूल बिछा है । उसका स्पर्श आजिनक रूई, बूर नामक वनस्पति, मक्खन और आक की रूई के समान सुकोमल है । लाल तूस से ढका रहता है । अत्यन्त रमणीय, मनमोहक यावत् असाधारण सुन्दर है। सूत्र-३८
उस देवशय्या के ईशान-कोण में आठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी सर्वमणिमय यावत् प्रतिरूप एक बड़ी मणिपीठिका बनी है। उस मणिपीठिका के ऊपर साठ योजन ऊंचा, एक योजन चौड़ा, वज्ररत्नमय सुंदर गोल आकार वाला यावत् प्रतिरूप एक क्षुल्लक-छोटा माहेन्द्रध्वज लगा हुआ है । जो स्वस्तिक आदि मंगलों, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों से उपशोभित है । उस क्षुल्लक माहेन्द्रध्वज की पश्चिम दिशा में सूर्याभदेव का चोप्पाल' नामक प्रहरणकोश बना हुआ है । वह आयुधगृह सर्वात्मना रजतमय, निर्मल यावत् प्रतिरूप है । उस प्रहरणकोश में सूर्याभदेव के परिघरत्न, तलवार, गदा, धनुष आदि बहुत से श्रेष्ठ प्रहरण सुरक्षित रखे हैं । वे सभी शस्त्र अत्यन्त उज्ज्वल, चमकीले, तीक्ष्ण धार वाले और मन को प्रसन्न करने वाले आदि हैं । सुधर्मा सभा का ऊपरी भाग आठआठ मंगलों, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों से सुशोभित हो रहा है। सूत्र-३९
सुधर्मा सभा के ईशान कोण में एक विशाल (जिनालय) सिद्धायतन है । वह सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा और बहत्तर योजन ऊंचा है। तथा इस सिद्धायतन का गोमानसिकाओं पर्यन्त एवं भूमिभाग तथा चंदेवा का वर्णन सुधर्मासभा के समान जानना । उस सिद्धायतन (जिनालय) के ठीक मध्यप्रदेश में सोलह योजन लम्बी-चौड़ी, आठ योजन मोटी एक विशाल मणिपीठिका बनी हुई है । उस मणिपीठिका के ऊपर सोलह योजन लम्बा-चौड़ा और कुछ अधिक सोलह योजन ऊंचा, सर्वात्मना मणियों से बना हुआ यावत् प्रतिरूप एक विशाल देवच्छन्दक स्थापित है और उस पर तीर्थंकरों की ऊंचाई बराबर वाली एक सो आठ जिनप्रतिमाएं बिराजमान हैं।
उन जिनप्रतिमाओं का वर्णन इस प्रकार है, जैसे-उन प्रतिमाओं की हथेलियाँ और पगलियाँ तपनीय स्वर्णमय हैं । मध्य में खचित लोहिताक्ष रत्न से युक्त अंकरत्न के नख हैं । जंघाएं, पिंडलियाँ और देहलता कनक-मय है । नाभियाँ तपनीयमय हैं । रोमराजि रिष्ट रत्नमय हैं । चूचक और श्रीवत्स तपनीयमय हैं। होठ प्रवाल के बने हुए हैं. दंतपंक्ति स्फटिकमणियों और जिहा एवं ताल त हैं। नासिकाएं बीच में लोहिताक्षरत्न खचित कनकमय हैं, नेत्र लोहिताक्ष रत्न से खचित मध्य-भाग युक्त अंकरत्न के हैं और नेत्रों की तारिकाएं अक्षिपत्र तथा भौहें रिष्टरत्नमय हैं । कपोल, कान और ललाट
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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