________________
आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' लिए भ्रमरसमूह गूंज रहे हैं । स्वच्छ-निर्मल जल से भरे हुए हैं । कल्लोल करते हुए मगरमच्छ कछुआ आदि बेरोकटोक इधर-उधर घूम फिर रहे हैं और अनेक प्रकार के पक्षिसमूहों के गमनागमन से सदा व्याप्त रहते हैं।
ये सभी जलाशय एक-एक पद्मवरवेदिका और एक-एक वनखण्ड से परिवेष्टित हैं । इन जलाशयों में से किसी में आसव, किसी में वरुणोदक, किसी में क्षीरोदक, किसी में घी, किसी में इक्षुरस और किसी-किसी में प्राकृतिक पानी जैसा पानी भरा है । ये सभी जलाशय मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उन प्रत्येक वापिकाओं यावत् कूपपंक्तियों की चारों दिशाओं में तीन-तीन सुन्दर सोपान बने हुए हैं । उन त्रिसोपान प्रतिरूपकों की नेमें वज्ररत्नों की हैं इत्यादि तोरणों, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों पर्यन्त इनका वर्णन पूर्ववत् समझना।
उन छोटी-छोटी वापिकाओं यावत् कूपपंक्तियों के मध्यवर्ती प्रदेशों में बहुत से उत्पातपर्वत, नियतिपर्वत, जगतीपर्वत, दारुपर्वत तथा कितने ही ऊंचे-नीचे, छोटे-बड़े दकमंडप, दकमंच, दकमालक, दकप्रासाद बने हुए हैं तथा कहीं-कहीं पर मनुष्यों और पक्षियों को झूलने के लिए झूले-हिंडोले पड़े हैं । ये सभी पर्वत आदि सर्वरत्नमय अत्यन्त निर्मल यावत् असाधारण रूप से सम्पन्न हैं । उन उत्पात पर्वतों, पक्षिहिंडोलों आदि पर सर्वरत्नमय, निर्मल यावत् अतीव मनोहर अनेक हंसासन, क्रौंचासन, गरुड़ासन, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन और दिशास्वस्तिक आसन रखे हुए हैं।
उन वनखण्डों में यथायोग्य स्थानों पर बहुत से आलिगृह, मालिगृह, कदलीगृह, लतागृह, आसनगृह, प्रेक्षा गृह, मज्जनगृह, प्रसाधनगृह, गर्भगृह, मोहनगृह, शालागृह, जाली वाले गृह, कुसुमगृह, चित्रगृह, गंधर्वगृह, आदर्शगृह से सुशोभित हो रहे हैं । ये सभी गृह रत्नों से बने हुए अधिकाधिक निर्मल यावत् असाधारण मनोहर हैं । उन आलिगृहों यावत् आदर्शगृहों में सर्वरत्नमय यावत् अतीव मनोहर हंसासन यावत् दिशा-स्वस्तिक आसन रखे हैं। उन वनखण्डों में विभिन्न स्थानों पर बहुत से जातिमंडप, यूथिकामंडप, मल्लिकामंडप, नवमल्लिकामंडप, वासंती मंडप, दधिवासुका मंडप, सुरिल्लि मंडप, नागरवेल मंडप, मृद्धीका मंडप, नागलता मंडप, अतिमुक्तक अप्फोया मंडप और मालुका मंडप बने हुए हैं । ये सभी मंडप अत्यन्त निर्मल, सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं।
हे आयुष्मन् श्रमणों ! उन जातिमंडपों यावत् मालुकामंडपों में कितने ही हंसासन, क्रौंचासन, गरुड़ासन, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन, दिशा स्वस्तिकासन जैसे आकार वाले पृथ्वीशिलापट्रक तथा दूसरे भी बहुत से श्रेष्ठ शयनासन सदृश विशिष्ट आकार वाले पृथ्वीशिला-पटक रखे हए हैं। ये सभी पृथ्वीशिलापट्टक वस्त्र, रूई, बूर, नवनीत, तूल, सेमल या आक की रूई के स्पर्श जैसे सुकोमल, कमनीय, सर्वरत्नमय, निर्मल यावत् अतीव रमणीय हैं । उन हंसासनों आदि पर बहुत से सूर्याभविमान-वासी देव और देवियाँ सुखपूर्वक बैठते हैं, सोते हैं, शरीर को लम्बा कर लेटते हैं, विश्राम करते हैं, ठहरते हैं, करवट लेते हैं, रमण करते हैं, केलिक्रीड़ा करते हैं, ईच्छानुसार भोग-विलास भोगते हैं, मनोविनोद करते हैं, रासलीला करते हैं और रतिक्रीड़ा करते हैं । इस प्रकार वे अपने-अपने सुपुरुषार्थ से पूर्वोपार्जित शुभ, कल्याणमय शुभफलप्रद, मंगलरूप पुण्य कर्मों के कल्याणरूप फलविपाक का अनुभव करते हुए समय बिताते हैं सूत्र-३३
उन वनखण्डों के मध्यातिमध्य भाग में एक-एक प्रासादावतंसक हैं । ये प्रासादावतंसक पाँच सौ योजन ऊंचे और अढ़ाई सौ योजन चौड़े हैं और अपनी उज्ज्वल प्रभा से हँसते हुए से प्रतीत होते हैं । इनका भूमिभाग अतिसम एवं रमणीय है । इनके चंदेवा, सामानिक आदि देवों के भद्रासनों सहित सिंहासन आदि का वर्णन पूर्ववत् इन प्रासादावतंसकों में महान ऋद्धिशाली यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाले चार देव निवास करते हैं । अशोक देव, सप्तपर्ण देव, चंपक देव और आम्र देव ।
सूर्याभ नामक देवविमान के अंदर अत्यन्त समतल एवं अतीव रमणीय भूमिभाग है । शेष बहुत से वैमानिक देव और देवियों के बैठने से विचरण करने तक का वर्णन पूर्ववत् । किन्तु वहाँ वनखण्ड का वर्णन छोड़
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 24