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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' आज्ञा दीजिए' कहकर तीर्थंकर की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन-पर सुखपूर्वक बैठ गया । इसके पश्चात् नाट्यविधि प्रारम्भ करने के लिए सबसे पहले उस सूर्याभदेव ने निपुण शिल्पियों द्वारा बनाये गये अनेक प्रकार की विमल मणियों, स्वर्ण और रत्नों से निर्मित भाग्यशालियों के योग्य, देदीप्यमान, कटक त्रुटित आदि श्रेष्ठ आभूषणों से विभूषित उज्ज्वल पुष्ट दीर्घ दाहिनी भुजा को फैलाया-उस दाहिनी भुजा से एक सौ आठ देवकुमार नीकले । वे समान शरीर-आकार, समान रंग-रूप, समान वय, समान लावण्य, युवोचित गुणों वाले, एक जैसे आभरणों, वस्त्रों
और नाट्योपकरणों से सुसज्जित, कन्धों के दोनों और लटकते पल्लोंवाले उत्तरीय वस्त्र धारण किये हुए, शरीर पर रंग-बिरंगे कंचुक वस्त्रों को पहने हुए, हवा का झोंका लगने पर विनिर्गत फेन जैसी प्रतीत होने वाली झालर युक्त चित्र-विचित्र देदीप्यमान, लटकते अधोवस्त्रों को धारण किये हए, एकावली आदि आभषणों से शोभ एवं वक्षःस्थल वाले और नृत्य करने के लिए तत्पर थे।
तदनन्तर सूर्याभदेव ने अनेक प्रकार की मणियों आदि से निर्मित आभूषणों से विभूषित यावत पीवर-पुष्ट एवं लम्बी बांयीं भुजा को फैलाया । उस भुजा से समान शरीराकृति, समान रंग, समान वय, समान लावण्य-रूपयौवन गुणों वाली, एक जैसे आभूषणों, दोनों ओर लटकते पल्ले वाले उत्तरीय वस्त्रों और नाट्योपकरणों से सुसज्जित, ललाट पर तिलक, मस्तक पर आमेल, गले में ग्रैवेयक और कंचुकी धारण किये हुए अनेक प्रकार के मणि-रत्नों के आभूषणों से विराजित अंग-प्रत्यंगों-वाला चन्द्रमुखी, चन्द्रार्ध समान ललाट वाली चन्द्रमा से भी अधिक सौम्य दिखाई देने वाली, उल्का के समान चमकती, शंगार गृह के तुल्य चारु-सुन्दर वेष से शोभित, हँसनेबोलने आदि में पटु, नृत्य करने के लिए तत्पर एक सौ आठ देवकुमारियाँ नीकलीं।
तत्पश्चात् १०८ देवकुमारों और देवकुमारियों की विकुर्वणा करने के पश्चात् सूर्याभदेवने १०८ शंखों की और १०८ शंखवादकों की विकुर्वणा की । इसी प्रकार से एक सौ आठ शृंगों और उनके वादकों की, शंखिकाओं और उनके वादकों की, खरमुखियों और उनके वादकों की, पेयों और उनके वादकों की, पिरिपिरिकाओं और उनके वादकों की विकुर्वणा की । इस तरह कुल मिलाकर उनचास प्रकार के वाद्यों और उनके बजाने वालों की विकुर्वणा की । तत्पश्चात् सूर्याभदेव नेउन देवकुमारों तथा देवकुमारियों को बुलाया । सूर्याभदेव द्वारा बुलाये जाने
र और देवकुमारियाँ हर्षित होकर यावत् सूर्याभदेव के पास आए और दोनों हाथ जोड़कर यावत् अभिनन्दन कर सूर्याभदेव से विनयपूर्वक बोले-हे देवानुप्रिय ! हमें जो करना है, उनकी आज्ञा दीजिए।
___ तब सूर्याभदेव ने उन देवकुमारों और देवकुमारियों से कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम सभी श्रमण भगवान महावीर के पास जाओ, तीन बार श्रमण भगवान महावीर की प्रदक्षिणा करो । वन्दन-नमस्कार श्रमण निर्ग्रन्थों के समक्ष दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव वाली, बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि करके दिखलाओ। शीघ्र ही मेरी इस आज्ञा वापस मुझे लौटाओ । तदनन्तर वे सभी देवकुमार और देव-कुमारियाँ सूर्याभदेव की इस आज्ञा सूनकर हर्षित हुए यावत् दोनों हाथ जोड़कर यावत् आज्ञा को स्वीकार किया । श्रमण भगवान के पास आकर यावत् नमस्कार करके जहाँ गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थ बिराजमान थे, वहाँ आए । सूत्र - २४
इसके बाद सभी देवकुमार और देवकुमारियाँ पंक्तिबद्ध होकर एक साथ मिले । सब एक साथ नीचे नमे और एक साथ ही अपना मस्तक ऊपर कर सीधे खड़े हुए । इसी क्रम से पुनः कर सीधे खड़े होकर नीचे नमे और फिर सीधे खड़े हुए । खड़े होकर एक साथ अलग-अलग फैल गए और फिर यथायोग्य नृत्य-गान आदि के उपकरणों-वाद्यों को लेकर एक साथ ही बजाने लगे, एक साथ ही गाने लगे और एक साथ नृत्य करने लगे । उनका संगीत इस प्रकार का था कि उर से उद्गत होने पर आदि में मन्द मन्द, मूर्छा में आने पर तार और कंठ स्थान में विशेष तार स्वर वाला था । इस तरह त्रिस्थान-समुद्गत वह संगीत त्रिसमय रेचक से रचित होने पर त्रिविध रूप था। संगीत की मधुर प्रतिध्वनि-गुंजारव में समस्त प्रेक्षागृह मण्डप गूंजने लगता था । गेय राग-रागनीके अनुरूप था। त्रिस्थान त्रिकरण से शुद्ध था । गूंजती हुई बांसुरी और वीणा के स्वरों से एक रूप मिला हुआ था । एक-दूसरे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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