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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' पाटल, नवमल्लिका, अगर, लवंग, वास, कपूर और कपूर के पुड़ों को अनुकूल वायु में खोलने पर, कूटने पर, तोड़ने पर, उत्कीर्ण करने पर, बिखेरने पर, उपभोग करने पर, दूसरों को देने पर, एक पात्र से दूसरे पात्र में रखने पर, उदार, आकर्षक, मनोज्ञ, मनहर घ्राण और मन को शांतिदायक गंध सभी दिशाओं में मघमघाती हुई फैलती है, महकती है ? आयुष्मन् श्रमणों ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ये तो मात्र उपमाएं हैं । वे मणियाँ तो इनसे भी इष्टतर यावत् मनोज्ञ-सुरभि गंध वाली थीं। उन मणियों का स्पर्श क्या अजिनक रूई, बूर, मक्खन, हंसगर्भ, शिरीष पुष्पों के समूह अथवा नवजात कमलपत्रों की राशि जैसा कोमल था ? आयुष्मन् श्रमणों ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । वे मणियाँ तो इनसे भी अधिक इष्टतर यावत् स्पर्शवाली थीं।
तदनन्तर आभियोगिक देवों ने उस दिव्य यान विमान के अंदर बीचों-बीच एक विशाल प्रेक्षागृह मण्डप की रचना की। वह प्रेक्षागह मण्डप अनेक सैकडों स्तम्भों पर संनिविष्ट था । अभ्यन्नत एवं सरचित वेदिकाओं, तोरणों तथा सुन्दर पुतलियों से सजाया गया था । सुन्दर विशिष्ट रमणीय संस्थान प्रशस्त और विमल वैडूर्य मणियों से निर्मित स्तम्भों से उपशोभित था । उसका भूमिभाग विविध प्रकार की उज्ज्वल मणियों से खचित, सुविभक्त एवं अत्यन्त सम था । उसमें ईहामृग वृषभ, तुरंग, नर, मगर, विहग, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, चमरी गाय, कुंजर, वनलता, पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित थे । स्तम्भों के शिरोभाग में वज्र रत्नों से बनी हुई वेदिकाओं से मनोहर दिखता था । यंत्रचालित-जैसे विद्याधर युगलों से शोभित था । सूर्य के सदृश हजारों किरणों से सुशोभित एवं हजारों सुन्दर घंटाओ से युक्त था । देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान होने से दर्शकों के नेत्रों को आकृष्ट करने वाला, सुखप्रद स्पर्श और रूप-शोभा से सम्पन्न था । उस पर स्वर्ण, मणि एवं रत्नमय स्तूप बने हुए थे । उसके शिखर का अग्र भाग नाना प्रकार की घंटियों और पंचरंगी पताकाओं से परिमंडित था । और अपनी चमचमाहट एवं सभी ओर फैल रही किरणों के कारण चंचल-सा दिखता था ।
उसका प्रांगण गोबर से लिपा था और दीवारें सफेद मिट्टी से पुती थीं । स्थान-स्थान पर सरस गोशीर्ष रक्तचंदन के हाथे लगे हुए थे और चंदनचर्चित कलश रखे थे । प्रत्येक द्वार तोरणों और चन्दन-कलशों से शोभित थे । दीवारों पर ऊपर से लेकर नीचे तक सुगंधित गोल मालाएं लटक रही थीं । सरस सुगन्धित पंचरंगे पुष्पों के मांडने बने हुए थे । उत्तम कृष्ण अगर, कुन्दरूष्क, तरुष्क और धूप की मोहक सुगंध से महक रहा था और उस उत्तम सुरभि गंध से गंध की वर्तिका प्रतीत होता था । अप्सराओं के समुदायों के गमनागमन से व्याप्त था । दिव्य वाद्यों के निनाद से गूंज रहा था । वह स्वच्छ यावत् प्रतिरूप था । उस प्रेक्षागृह मंडप के अंदर अतीव सम रमणीय भूभाग की रचना की । उस भूमि-भाग में खचित मणियों के रूप-रंग, गंध आदि की समस्त वक्तव्यता पूर्ववत् । उस सम और रमणीय प्रेक्षागृह मंडप की छत में पद्मलता आदि के चित्रामों से युक्त यावत् अतीव मनोहर चंदेवा बांधा । उस सम रमणीय भूमिभाग के भी मध्यभाग में वज्ररत्नों से निर्मित एक विशाल अक्षपाट की रचना की । उस क्रीडामंच के बीचोंबीच आठ योजन लम्बी-चौड़ी और चार योजन मोटी पूर्णतया वज्ररत्नों से बनी हुई निर्मल, चिकनी यावत् प्रतिरूपा एक विशाल मणिपीठिका की विकुर्वणा की।
उस मणिपीठिका के ऊपर एक महान सिंहासन बनाया । उस सिंहासन के चक्कला सोने के, सिंहाकृति वाले हत्थे रत्नों के, पाये सोने के, पादशीर्षक अनेक प्रकार की मणियों के और बीच के गाते जाम्बूनद के थे । उसकी संधियाँ वज्ररत्नों से भरी हुई थीं और मध्य भाग की बुनाई का वेंत बाण मणिमय था । उस सिंहासन पर ईहामृग, वृषभ तुरग, नर, मगर, विहग, सर्प, किन्नर, रुरु सरभ, चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र बने हए थे । सिंहासन के सामने स्थापित पाद-पीठ सर्वश्रेष्ठ मूल्यवान मणियों और रत्नों का बना हुआ था । उस पादपीठ पर पैर रखने के लिए बिछा हुआ मसूरक नवतृण कुशाग्र और केसर तंतुओं जैसे अत्यन्त सुकोमल सुन्दर आस्तारक से ढका हुआ था । उसका स्पर्श आजिनक रूई, बूर, मक्खन और आक की रूई जैसा मृदु-कोमल था। वह सुन्दर सुरचित रजस्राण से आच्छादित था । उस पर कसीदा काढ़े क्षौम दुकूल का चद्दर बिछा हुआ था और अत्यन्त रमणीय लाल वस्त्र से आच्छादित था । जिससे वह सिंहासन अत्यन्त रमणीय, मन को प्रसन्न करने वाला,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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