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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' वहाँ आया । उसने हाथ जोड़त हुए, अंजलि बाँधे “आपकी जय हो, विजय हो'' इन शब्दों में वर्धापित किया । तत्पश्चात् बोला-देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन की आप कांक्षा, स्पृहा, प्रार्थना और अभिलाषा करते हैं जिनके नाम तथा गोत्र के श्रवणमात्र से हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, हर्षातिरेक से हृदय खिल उठता है, वे श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विहार करते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव होते हुए चम्पा नगरी के उपनगर में पधारे हैं। अब पूर्णभद्र चैत्य में पधारेंगे । देवानुप्रिय ! आपके प्रीत्यर्थ निवेदित कर रहा हूँ। यह आपके लिए प्रियकर हो सूत्र-१२
भंभसार का पुत्र राजा कूणिक वार्तानिवेदक से यह सूनकर, उसे हृदयंगम कर हर्षित एवं परितुष्ट हुआ । उत्तम कमल के समान उसका मुख तथा नेत्र खिल उठे । हर्षातिरेक जनित संस्फूर्तिवश राजा के हाथों के उत्तम कड़े, बाहुरक्षिका, केयूर, मुकूट, कुण्डल तथा वक्षःस्थल पर शोभित हार सहसा कम्पित हो उठे-राजा के गले में लम्बी माला लटक रही थी, आभूषण झूल रहे थे । राजा आदरपूर्वक शीघ्र सिंहासन से उठा । पादपीठ पर पैर रखकर नीचे ऊतरा | पादुकाएं उतारी | फिर खड्ग, छत्र, मुकुट, वाहन, चंवर-इन पाँच राजनिह्नों को अलग किया। जल से आमचन किया, स्वच्छ, परम शुचिभूत, अति स्वच्छ व शुद्ध हुआ । कमल की फली की तरह हाथों को संपुटित किया । जिस ओर तीर्थंकर भगवान महावीर बिराजित थे, उस ओर सात, आठ कदम सामने गया । वैसा कर अपने बायें घुटने को आकुंचित किया-सकिड़ा, दाहिने घुटने को भूमि पर टिकाया, तीन बार अपना मस्तक जमीन से लगाया । फिर वह कुछ ऊपर उठा, कंकण तथा बाहुरक्षिका से सुस्थिर भुजाओं को उठाया, हाथ जोड़े, अंजलि की ओर बोला।
अर्हत्, भगवान्, आदिकर, तीर्थंकर, धर्मतीर्थ, स्वयंसंबुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषवरपुण्डरीक, पुरुषवर-गन्धहस्ती, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, लोकप्रतीप, लोकप्रद्योतकर, अभयदायक, चक्षुदायक, मार्गदायक, शरणदायक, जीवनदायक, बोधिदायक, धर्मदायक, धर्मदेशक, धर्मनायक, धर्मसारथि, धर्मवरचातुरन्त-चक्रवर्ती, दीप, अथवा द्वीप, त्राण, शरण, गति एवं प्रतिष्ठास्वरूप, प्रतिघात, बाधा या आवरणरहित उत्तम ज्ञान, दर्शन के धारक, व्यावृत्तछद्मा जिन, ज्ञाता, तीर्ण, तारक, बुद्ध, बोधक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव, अचल, निरुपद्रव, अन्तरहित, क्षयरहित, बाधारहित, अपुनरावर्तन, ऐसी सिद्धि-गति-सिद्धों को नमस्कार हो ।
आदिकर, तीर्थंकर, सिद्धावस्था पाने के इच्छुक, मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर को मेरा नमस्कार हो । यहाँ स्थित मैं, वहाँ स्थित भगवान को वन्दन करता हूँ। वहाँ स्थित भगवान यहाँ स्थित मुझको देखते हैं । इस प्रकार राजा कूणिक ने भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया । पूर्व की ओर मुँह किये अपने उत्तम सिंहासन पर बैठा । एक लाख आठ हजार रजत मुद्राएं वार्तानिवेदक को प्रीतिदान रूप से दी । उत्तम वस्त्र आदि द्वारा उसका सत्कार किया, आदरपूर्ण वचनों से सम्मान किया । यों सत्कार तथा सम्मान कर उसने कहादेवानु-प्रिय ! जब श्रमण भगवान महावीर यहाँ पधारे, यहाँ चम्पानगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में यथाप्रतिरूप आवास-स्थान ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विराजित हों, मुझे यह समझाकर निवेदित करना । यों कहकर राजा ने वार्तानिवेदक को वहाँ से बिदा किया। सूत्र-१३
तत्पश्चात् अगले दिन रात बीत जाने पर, प्रभात हो जाने पर, नीले तथा अन्य कमलों के सुहावने रूप में खिल जाने पर, उज्ज्वल प्रभायुक्त एवं लाल अशोक, पलाश, तोते की चोंच, धुंघची के आधे भाग के सदृश लालिमा लिए हुए, कमलवन को विकसित करने वाले, सहस्रकिरणयुक्त, दिन के प्रादुर्भावक सूर्य के उदित होने पर, अपने तेज से उद्दीप्त होने पर श्रमण भगवान महावीर, जहाँ चम्पा नगरी थी, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे । यथा-प्रतिरूप आवास ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए बिराजे । सूत्र - १४
तब श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी बहुत से श्रमण संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । उनमें अनेक ऐसे थे, जो उग्र, भोग, राजन्य, ज्ञात, कुरुवंशीय, क्षत्रि, सुभट, योद्धा, सेनापति, प्रशास्ता, सेठ, इभ्य, इन इन वर्गों में से दीक्षित हुए थे । और भी बहुत से उत्तम जाति, उत्तम कुल, सुन्दररूप, विनय, विज्ञान,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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