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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक ग्रहण करना-अरे स्मरण करना भी नहीं चाहते ! तो फिर दर्शन व परिभोग-भोगविलास की तो बात ही क्या है ? अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं इस गर्भ को अनेक प्रकार की शातना, पातना, गालना, व मारणा से नष्ट कर दूँ । इस प्रकार विचार करके गर्भपात के लिए गर्भ को गिर देने वाली क्षारयुक्त, कड़वी, कसैली, औषधियों का भक्षण तथा पान करती हुई उस गर्भ के शातन, पातन, गालन व मारण करने की ईच्छा करती है । परन्तु वह गर्भ उपर्युक्त सभी उपायों से भी नाश को प्राप्त नहीं हुआ । तब वह मृगादेवी शरीर से श्रान्त, मन से दुःखित तथा शरीर और मन से खिन्न होती हुई ईच्छा न रहते हुए भी विवशता के कारण अत्यन्त दु:ख के साथ गर्भ वहन करने लगी।
गर्भगत उस बालक की आठ नाड़ियाँ अन्दर की ओर और आठ नाड़ियाँ बाहर की ओर बह रही थी। उनमें प्रथम आठ नाड़ियों से रुधिर बह रहा था । इन सोलह नाड़ियों में से दो नाड़ियाँ कर्ण-विवरों में, दो-दो नाड़ियाँ नेत्रविवरों में, दो-दो नासिकाविवरों में तथा दो-दो धमनियों में बार-बार पीव व लोह बहा रही थी । गर्भ में ही उस बालक को भस्मक नामक व्याधि उत्पन्न हो गयी थी, जिसके कारण वह बालक जो कुछ खाता, वह शीघ्र ही भस्म हो जाता था, तब वह तत्काल पीव व शोणित के रूप में परिणत हो जाता था । तदनन्तर वह बालक उस पीव व शोणित को भी खा जाता था । तत्पश्चात् नौ मास परिपूर्ण होने के अनन्तर मृगादेवी ने एक बालक जो जन्म से अन्धा और अवयवों की आकृति मात्र रखने वाला था । तदनन्तर विकृत, बेहूदे अंगोपांग वाले तथा अन्धरूप उस बालक को मृगादेवी ने देखा और देखकर भय, त्रास, उद्विग्नता और व्याकुलता को प्राप्त हुई।
उसने तत्काल धायमाता को बुलाकर कहा-तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकान्त में किसी कूड़े-कचरे के ढेर पर फेंक आओ । उस धायमाता ने मृगादेवी के इस कथन को बहुत अच्छा' कहकर स्वीकार किया और वह जहाँ विजय नरेश थे वहाँ पर आई और दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगी- हे स्वामिन ! पूरे नव मास हो जाने पर मृगादेवी ने एक जन्मान्ध यावत् अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया है । उस हुण्ड बेहूदे अवयववाले, विकृतांग, व जन्मान्ध बालक को देखकर मृगादेवी भयभीत हुई और मुझे बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकान्त में किसी कूड़े-कचरे के ढेर पर फेंक आओ । अतः हे स्वामिन ! आप ही मुझे बतलाएं कि मैं उसे एकान्त में ले जाकर फेंक आऊं या नहीं?
उसके बाद वह विजय नरेश उस धायमाता के पास से यह सारा वृत्तान्त सूनकर सम्भ्रान्त होकर जैसे ही थे उठकर खड़े हो गए । जहाँ रानी मृगादेवी थी, वहाँ आए और मृगादेवी से कहने लगे-'हे देवानुप्रिये ! तुम्हारा यह प्रथम गर्भ है, यदि तुम इसको कूड़े-कचरे के ढेर पर फिकवा दोगी तो तुम्हारी भावी प्रजा-सन्तान स्थिर न रहेगी। अतः तुम इस बालक को गुप्त भूमिगृह में रखकर गुप्त रूप से भक्तपानादि के द्वारा इसका पालन-पोषण करो । ऐसा करने से तुम्हारी भावी सन्तति स्थिर रहेगी । तदनन्तर वह मृगादेवी विजय क्षत्रिय के इस कथन को स्वीकृतिसूचक तथेति' ऐसा कहकर विनम्र भाव से स्वीकार करती है और उस बालक को गुप्त भूमिगृह में स्थापित कर गुप्तरूप से आहारपानादि के द्वारा पालन-पोषण करती हुई समय व्यतीत करने लगी । भगवान महावीर स्वामी फरमाते हैं-हे गौतम ! यह मृगापुत्र दारक अपने पूर्वजन्मोपार्जित कर्मों का प्रत्यक्ष रूप से फलानुभव करता हुआ इस तरह समय-यापन कर रहा है। सूत्र - १०
हे भगवन् ! यह मृगापुत्र नामक दारक यहाँ से मरणावसर पर मृत्यु को पाकर कहाँ जाएगा? और कहाँ पर उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! मृगापुत्र दारक २६ वर्ष के परिपूर्ण आयुष्य को भोगकर मृत्यु का समय आने पर काल करके इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सिंहकुल में सिंह के रूप में उत्पन्न होगा । वह सिंह महाअधर्मी तथा पापकर्म में साहसी बनकर अधिक से अधिक पापरूप कर्म एकत्रित करेगा। वह सिंह मृत्यु को प्राप्त होकर इस रत्नप्रभापृथ्वी में, जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है; -उन नारकियों में उत्पन्न होगा । बिना व्यवधान के पहली नरक से नीकलकर सीधा सरीसृपों की योनियों में उत्पन्न होगा। वहाँ से काल करके दूसरे नरक में, जिसकी उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है, उत्पन्न होगा । वहाँ से नीकलकर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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