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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-२ - उज्झितक सूत्र-११
हे भगवन् ! यदि मोक्ष-संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है तो - विपाकसूत्र के द्वितीय अध्ययन का क्या अर्थ बताया है ? इसके उत्तर में श्रीसुधर्मा अनगार ने श्रीजम्बू अनगार को इस प्रकार कहा-हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वाणिजग्राम नामक नगर था जो ऋद्धिस्तिमित-समृद्ध था । उस वाणिजग्राम के ईशानकोण में दूतिपलाश नामक उद्यान था । उस दूतिपलाश संज्ञक उद्यान में सुधर्मा नाम के यक्ष का यक्षायतन था । उस वाणिजग्राम नामक नगर में मित्र नामक राजा था । उस मित्र राजा की श्री नाम की पटरानी थी।
उस वाणिजग्राम नगर में सम्पूर्ण पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाली, यावत् परम सुन्दरी, ७२ कलाओं में कुशल, गणिका के ६४ गुणों से युक्त, २६ प्रकार के विशेषों-विषयगुणों में रमण करने वाली, २१ प्रकार के रतिगुणों में प्रधान, कामशास्त्र प्रसिद्ध पुरुष के ३२ उपचारों में कुशल, सुप्त नव अंगों से जागृत, अठारह देशों की अठारह प्रकार की भाषाओं में प्रवीण, शृंगारप्रधान वेषयुक्त गीत, रति, गान्धर्व, नाट्य में कुशल मन को आकर्षित करने वाली, उत्तम गति-गमन से युक्त जिसके विलास भवन पर ऊंची ध्वजा फहरा रही थी, जिसको राजा की ओर से पारितोषिक रूप में छत्र, चामर-चँवर, बाल व्यजनिका कृपापूर्वक प्रदान किये गए थे और कीरथ नामक रथविशेष से गमनागमन करने वाली थी; ऐसी काम-ध्वजा नाम की गणिका-वेश्या रहती थी जो हजारों गणिकाओं का स्वामित्व, नेतृत्व करती हुई समय व्यतीत कर रही थी। सूत्र - १२
उस वाणिजग्राम नगर में विजयमित्र नामक एक धनी सार्थवाह निवास करता था । उस विजयमित्र की अन्यून पञ्चेन्द्रिय शरीर से सम्पन्न सुभद्रा नाम की भार्या थी । उस विजयमित्र का पुत्र और सुभद्रा का आत्मज उज्झितक नामक सर्वाङ्गसम्पन्न और रूपवान् बालक था । उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर वाणिजग्राम नामक नगर में पधारे । प्रजा दर्शनार्थ नीकली । राजा भी कूणिक नरेश की तरह गया। भगवान ने धर्म का उपदेश दिया । जनता तथा राजा दोनों वापिस चले गए।
उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार, जो कि तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके अपने अन्दर धारण किये हुए हैं तथा बेले की तपस्या करते हुए थे । वे भिक्षार्थ वाणिज्यग्राम नगर में पधारे । वहाँ (राजमार्ग में) उन्होंने अनेक हाथियों को देखा । वे हाथी युद्ध के लिए उद्यत थे, जिन्हें कवच पहनाए हुए थे, जो शरीररक्षक उपकरण आदि धारण किये हुए थे, जिनके उदर दृढ़ बन्धन से बाँधे हुए थे । जिनके झूलों के दोनों तरफ बड़े बड़े घण्टे लटक रहे थे । जो नाना प्रकार के मणियों ओर रत्नों से जुड़े हुए विविध प्रकार के ग्रैवेयक पहने हए थे तथा जो उत्तर कंचक नामक तनत्राणविशेष एवं अन्य कवच आदि सामग्री धारण किए हुए थे । जो ध्वजा पताका तथा पंचविध शिरोभूषण से विभूषित थे एवं जिन पर आयुध व प्रहरणादि लिए हुए महावत बैठे हुए थे अथवा उन हाथियों पर आयुध लदे हुए थे।
इसी तरह वहाँ अनेक अश्वों को भी देखा, जो युद्ध के लिए उद्यत थे तथा जिन्हें कवच तथा शारीरिक रक्षा के उपकरण पहनाए हुए थे। जिनके शरीर पर सोने की बनी हुई झूल पड़ी हुई थी तथा जो लटकाए हुए तनुत्राण से युक्त थे । जो बखतर विशेष से युक्त तथा लगाम से अन्वित मुख वाले थे । जो क्रोध से अधरों को चबा रहे थे । चामर तथा स्थासक से जिनका कटिभाग परिमंडित हो रहा था तथा जिन पर सवारी कर रहे अश्वारोही आयुध और प्रहरण ग्रहण किये हए थे अथवा जिन पर शस्त्रास्त्र लदे हए थे । इसी तरह वहाँ बहत से पुरुषों को भी देखा जो दृढ़ बन्धनों से बंधे हुए लोहमय कुसूलादि से युक्त कवच शरीर पर धारण किये हुए, जिन्होंने पट्टिका कसकर बाँध रखी थी । जो गले में ग्रैवेयक धारण किये हुए थे । जिनके शरीर पर उत्तम चिह्नपट्टिका लगी हुई थी तथा जो आयुधों और प्रहरणों को ग्रहण किये हुए थे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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