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________________ आगम सूत्र-८, अंगसूत्र-८, 'अंतकृत् दशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उसी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होती है । रथारूढ़ हो जहाँ द्वारका नगरी थी, वहाँ आकर द्वारका नगरी में प्रवेश कर अपने प्रासाद के बाहर की उपस्थानशाला आती है, धार्मिक रथ से नीचे ऊतरकर जहाँ अपना वासागृह था, जहाँ अपनी शय्या थी उस पर बैठ जाती है। उस समय देवकी देवी को इस प्रकार का विचार, चिन्तन और अभिलाषापूर्ण मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ कि अहो ! मैंने पूर्णतः समान आकृतिवाले यावत् नलकूबर के समान सात पुत्रों को जन्म दिया पर मैंने एक की भी बाल्यक्रीडा का आनन्दानुभव नहीं किया । यह कृष्ण वासुदेव भी छह-छह मास के अनन्तर चरण-वन्दन के लिए मेरे पास आता है, अतः मैं मानती हूँ कि वे माताएं धन्य हैं, जिनकी अपनी कुक्षि से उत्पन्न हुए, स्तन-पान के लोभी बालक. मधुर आलाप करते हए, तुतलाती बोलीसे मन्मन बोलते जिनके स्तनमूल कक्षाभाग करते हैं, फिर उन मुग्ध बालकों को जो माताएं कमल के समान अपने कोमल हाथों द्वारा पकड कर गोदमें बिठाती हैं और अपने बालकों से मधर-मंजल शब्दोंमें बार बार बातें करती हैं। मैं निश्चितरूपेण अधन्य, पुण्यहीन हँ क्योंकि मैंने इनमें से एक पुत्र की भी बालक्रीड़ा नहीं देखी । इस प्रकार देवकी खिन्न मन से यावत् आर्तध्यान करने लगी। उसी समय वहाँ श्रीकृष्ण वासुदेव स्नान कर यावत् विभूषित होकर देवकी माता के चरण-वंदन के लिए शीघ्रतापूर्वक आए । वे कृष्ण वासुदेव देवकी माता के दर्शन करते हैं, चरणों में वंदन करते हैं । फिर देवकी देवी से इस प्रकार पूछने लगे-'हे माता ! पहले तो मैं जब-जब आपके चरण-वन्दन के लिए आता था, तब-तब आप मुझे देखते ही हृष्ट तुष्ट यावत् आज आर्तध्यान में निमग्न-सी क्यों दिख रही हो?'' कृष्ण द्वारा इस प्रकार का प्रश्न किये जाने पर देवकी देवी कृष्ण वासुदेव से कहने लगी-हे पुत्र ! वस्तुतः बात यह है कि मैंने समान आकृति यावत् समान रूप वाले सात पुत्रों को जन्म दिया । पर मैंने उनमें से किसी एक के भी बाल्यकाल अथवा बाल-लीला का सुख नहीं भोगा । पुत्र ! तुम भी छह छह महीनों के अन्तर से मेरे पास चरण-वंदन के लिए आते हो । अतः मैं ऐसा सोच रही हूँ कि वे माताएं धन्य हैं, यावत् आर्तध्यान कर रही हूँ। माता की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण वासुदेव देवकी महारानी से इस प्रकार बोले-''माताजी ! आप उदास अथवा चिन्तित होकर आर्तध्यान मत करो । मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे मेरा एक सहोदर छोटा भाई उत्पन्न हो।'' इस प्रकार कहकर श्रीकृष्ण ने देवकी माता को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ वचनों द्वारा धैर्य बंधाया, आश्वस्त किया । श्रीकृष्ण अपनी माता के प्रासाद से नीकले, जहाँ पौषधशाला थी वहाँ आए । आकर अभयकुमार के समान अष्टमभक्त तप स्वीकार करके अपने मित्र देव की आराधना की । विशेषता यह कि इन्होंने हरिणैगमेषी देव की आराधना की । आराधना में अष्टम भक्त तप ग्रहण किया, यावत् हरिणैगमेषी देव आराधना से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण के पास आया । तब श्रीकृष्णने हाथ जोडकर इस प्रकार कहा-हे देवानप्रिय ! आप मुझे एक सहोदर लघुभ्राता दीजिए, यही मेरी ईच्छा है। तब हरिणैगमेषी देव श्रीकृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोला-''हे देवानुप्रिय ! देवलोक का एक देव वहाँ का आयुष्य पूर्ण होने पर देवलोक से च्युत होकर आपके सहोदर छोटे भाई के रूप में जन्म लेगा और इस तरह आपका मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा, पर वह बाल्यकाल बीतने पर, यावत् युवावस्था प्राप्त होने पर भगवान श्रीअरिष्टनेमी के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करेगा।'' श्रीकृष्ण वासुदेव को उस देव ने दूसरी बार, तीसरी बार भी यही कहा और यह कहने के पश्चात् जिस दिशा से आया था उसी में लौट गया। इसके पश्चात् श्रीकृष्ण-वासुदेव पौषधशाला से नीकले, देवकी माता के पास आए, आकर देवकी देवी का चरण-वंदन किया, वे माता से इस प्रकार बोले-'हे माता ! मेरा एक सहोदर छोटा भाई होगा ।'' ऐसा कह करके उन्होंने देवकी माता को मधुर एवं इष्ट, यावत् आश्वस्त करके जिस दिशा से प्रादुर्भूत हुए थे उसी दिशा में लौट गए। तदनन्तर वह देवकी देवी अपने आवासगृह में शय्या पर सोई हुई थी। तब उसने स्वप्न में सिंह को देखा । वह इस प्रकार के उदार यावत् शोभावाले महास्वप्न को देखकर जागृत हुई । देवकी देवी ने स्वप्न का सारा वृत्तांत अपने स्वामी को सूनाया । महाराजा वसुदेव ने स्वप्न पाठकों को बुलवाया और स्वप्नसंबंधि फल के विषय में पूछा मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अंतकृद्दशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 11
SR No.034675
Book TitleAgam 08 Antkruddasha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 08, & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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