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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक-३४
शतकशतक- १ उद्देशक - १
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शतक/ वर्ग / उद्देशक / सूत्रांक
सूत्र - १०३३
भगवन् ! एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के, यथा- पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक | इनके भी प्रत्येक के चार-चार भेद वनस्पतिकायिक- पर्यन्त कहने चाहिए।
भगवन्! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिमी चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? गौतम ! एक समय की, दो समय की अथवा तीन समय की । भगवन्! ऐसा क्यों कहा जाता है कि वह एक समय दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! मैंने सात श्रेणियाँ कही हैं, यथा- ऋज्वायता, एकतोवक्रा, उभयतोवक्रा, एकतः खा, उभयतः खा, चक्रवाल और अर्द्धचक्रवाल । जो पृथ्वीकायिक जीव ऋज्वायता श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह एक समय की विग्रहगति से जो एकतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह दो समय की विग्रहगति से जो उभयतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है । इस कारण से हे गौतम! यह कहा जाता है ।
भगवन् । अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव जो रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिमदिशा के चरमान्त में पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? गौतम ! एक समय, दो समय अथवा तीन समय की इत्यादि शेष पूर्ववत्, इस कारण ... तक कहना चाहिए। इसी प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव का पूर्व-दिशा के चरमान्त में मृत्यु प्राप्त कर पश्चिमदिशा के चरमान्त में बादर अपर्याप्त पृथ्वीकायिक रूप से उपपात कहना। और वहीं पर्याप्त रूप से उपपात कहना चाहिए। इसी प्रकार अप्कायिक जीव के भी चार आलापक कहना सूक्ष्म अपर्याप्तक का सूक्ष्म पर्याप्तक का बादर अपर्याप्तक का तथा बादर पर्याप्तक का उपपात कहना चाहिए। इसी प्रकार सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक और पर्याप्तक का उपपात कहना चाहिए।
भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, जो इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरण-समुद् घात करके मनुष्य-क्षेत्र में अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, तो हे भगवन्! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? गौतम ! पूर्ववत् कहना । इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप से उपपातका कथन करना । सूक्ष्म और बादर अप्कायिक समान सूक्ष्म और बादर वायुकायिक का उपपात कहना। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों के उपपात के विषय में भी कहना ।
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भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के इत्यादि प्रश्न ? गौतम पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव भी रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात से क्रमशः इन बीस स्थानों में बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिक तक, उपपात कहना। इसी प्रकार अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक का उपपात भी कहना । इसी प्रकार पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक के उपपात को जानना। इसी प्रकार अप्कायिक जीवों के चार गमक द्वारा पूर्व-चरमान्त में मरणसमुद्घातपूर्वक मरकर इन्हीं पूर्वोक्त बीस स्थानों में पूर्ववत् का कथन करना । अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवों का भी इन्हीं बीस स्थानों में पूर्वोक्तरूप से उपपात कहना ।
भगवन् । अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव, जो मनुष्यक्षेत्र में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिम-चरमान्त में अपर्याप्त पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हैं, हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? गौतम पूर्ववत् इस कारण से वह... तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है, तक कहना। इसी प्रकार चारों प्रकार के पृथ्वीकायिक जीवों में भी पूर्ववत् उपपात कहना । चार प्रकार के अप्कायिकों में भी इसी प्रकार उपपात कहना । सूक्ष्मतेजस्कायिक जीव के पर्याप्तक और अपर्याप्तक में भी इसी प्रकार उपपात कहना ।
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भगवन्! अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव, जो मनुष्यक्षेत्र में मरणसमुद्घात करके मनुष्यक्षेत्र में अपर्याप्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती २ ) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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