________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक हैं । काययोगी होते हैं। तीन समुद्घात होते हैं । स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त होती है। अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं और अनुबन्ध भी स्थिति के अनुसार होता है । अन्तिम तीनों गमकों में प्रथम गमक के समान वक्तव्यता कहनी परन्तु विशेष यह है कि स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि का होता है सूत्र - ८४८
(भगवन् !) यदि वे (पृथ्वीकायिक) मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञी मनुष्यों से ? गौतम ! वे दोनों प्रकार के मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! असंज्ञी मनुष्य,
काल की स्थिति वाले पथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? जघन्य काल की स्थिति वाले असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक अनसार है. यहाँ भी औधिक तीन गमक सम्पर्ण कहने चाहिए। शेष गमक नहीं कहने संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या संख्यात वर्ष की आय वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंख्यात वर्ष की ? गौतम ! वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात से नहीं।
भगवन् ! यदि वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त से ? गौतम ! वे दोनों प्रकार के संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! संख्येय वर्षायुष्क पर्याप्त संज्ञी मनुष्य कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की । भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! रत्नप्रभा में उत्पन्न होने योग्य मनुष्य के समान कहनी चाहिए । विशेष यह है कि उसके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष की होती है; स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की होती है । अनुबन्ध भी इसी प्रकार जानना । संवेध-जैसे संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यंच का कहा है, वैसे ही यहाँ नौ ही गमकों में कहना चाहिए । बीच के तीन गमकों में संज्ञी पंचेन्द्रिय के मध्यम तीन गमकों समान कहना चाहिए । शेष पूर्ववत् । पीछले तीन गमकों का कथन इसी के प्रथम तीन औधिक गमकों के समान कहना चाहिए । विशेष यह है कि शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष की है; स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के होते हैं । शेष पूर्ववत् । विशेषता यह है कि पीछले तीन गमकों में संख्यात ही उत्पन्न होते हैं, असंख्यात नहीं।
भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिक देवों से आकर ? गौतम ! वे भवनवासी यावत् वैमानिक देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! यदि वे भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे असुरकुमार-भवनवासी अथवा यावत स्तनितकुमार-भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे असुरकुमार यावत स्तनितकुमारभवनवासी देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं।
भगवन् ! असुरकुमार कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की । भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! उन जीवों के शरीर किस प्रकार के संहनन वाले हैं ? गौतम ! उनके शरीर छहों प्रकार के संहननों से रहित होते हैं।
भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! दो प्रकार की है । यथाभवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । उनमें जो भवधारणीय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सप्त रत्नी की है तथा उनमें जो उत्तरवैक्रिय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के संख्यातवे भाग की और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है । भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौन-सा कहा गया है ? गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । उनमें जो भवधारणीय शरीर हैं, वे समचतुरस्रसंस्थान वाले कहे गए हैं तथा जो उत्तरवैक्रिय शरीर हैं, वे अनेक प्रकार के संस्थान वाले कहे गए हैं । उनके चार लेश्याएं, तीन दृष्टियाँ नियमतः
से, योग तीन, उपयोग दो, संज्ञाएं चार, कषाय चार, इन्द्रियाँ पाँच, समुद्घात पाँच और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 162