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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला मनुष्य, उत्कृष्ट स्थिति वाले में उत्पन्न हो तो उसी पूर्वोक्त सप्तम गमक के समान वक्तव्यता जानना । विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से-जघन्य पूर्वकोटि अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम; इतने काल यावत् गमनागमन करता है। सूत्र-८४२
भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी-मनुष्य, जो शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो; वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! वह जघन्य एक सागरोपम की और उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले शर्कराप्रभा नैरयिकों में उत्पन्न होता है । भगवन् ! वे जीव वहाँ एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! उनके विषय में रत्नप्रभापथ्वी के नैरयिकों के समान गमक जानना । विशेष यह है कि उनके शरीर की अवगाहना जघन्य रत्नीपथक्त्व और उत्कष्ट पाँच सौ धनष होती है। उनकी स्थिति जघन्य वर्ष-पथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की होती है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी समझना । शेष सब कथन भवादेश तक पूर्ववत् । काल की अपेक्षा से-जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम; इतने काल तक गमनागमन करता है । इस प्रकार औधिक के तीनों गमक मनुष्य की वक्तव्यता के समान जानना । विशेषता नैरयिक की स्थिति और कालादेश से संवेध जान लेना।
यदि वह स्वयं जघन्य स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्य, शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों में पूर्वोक्त वही वक्तव्यता जाननी चाहिए । विशेष यह है कि उनके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट भी रत्नीपृथक्त्व होती है। उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व की होती है । इसी प्रकार अनुबन्ध भी होता है। शेष सब कथन औधिक गमक के समान जानना । संवेध भी उपयोगपूर्वक समझ लेना चाहिए। यदि वह मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो उसके भी तीनों गमकों में विशेषता इस प्रकार है-उनके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष की होती है । उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटिवर्ष की होती है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी समझना । शेष सब प्रथम गमक के समान है। विशेषता यह है कि नैरयिक की स्थिति और कायसंवेध तदनुकूल जानना चाहिए।
इसी प्रकार छठी नरकपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए । परन्तु विशेष यह है कि तीसरी नरकपृथ्वी से लेकर आगे तिर्यंचयोनिक के समान एक-एक संहनन कम होता है। कालादेश भी इसी प्रकार कहना । परन्तु विशेष यह है कि यहाँ मनुष्यों की स्थिति जाननी चाहिए।
___ भगवन् ! पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्क-संज्ञी मनुष्य, जो सप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! वह जघन्य बाईस सागरोपम की स्थिति वाले और उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की स्थिति वालों में । भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? पूर्ववत् शर्कराप्रभा-पृथ्वी के गमक के समान समझना । विशेष यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी में प्रथम संहनन वाले ही उत्पन्न होते हैं । वहाँ स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते । शेष कथन अनुबन्ध तक पूर्ववत् । भव की अपेक्षा से-दो भव ग्रहण और काल की अपेक्षा सेजघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तैंतीस सागरोपम । यदि वही मनुष्य, जघन्य काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी-नारकों में उत्पन्न हो, तो भी यही वक्तव्यता । विशेष यह है कि यहाँ नैरयिक की स्थिति और संवेध स्वयं विचार करके कहना । यदि वही मनुष्य, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न हो, तो भी यही वक्तव्यता । विशेष यह है कि इसका संवेध स्वयं जान लेना।
यदि वही स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों में यही वक्तव्यता समझनी चाहिए । विशेष यह है कि उसके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रत्नीपृथक्त्व होती है। उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व की होती है । अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है । संवेध के विषय में उपयोग पूर्वक कहना चाहिए । यदि वह संज्ञी मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न हो, तो उसके भी तीनों गमकों में पूर्वोक्त वक्तव्यता समझना । विशेष इतना ही है की शरीर की अवगाहना जघन्य और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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