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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक
शतक-४ सूत्र-२०७
__ इस चौथे शतक में दस उद्देशक हैं । इनमें से प्रथम चार उद्देशकों में विमान-सम्बन्धी कथन किया गया है । पाँचवे से लेकर आठवें उद्देशक तक राजधानीयों का वर्णन है । नौवें उद्देशक में नैरयिकों का और दसवें उद्देशक में लेश्या के सम्बन्ध में निरूपण है।
शतक-४ - उद्देशक-१ से ४ सूत्र-२०८
राजगृह नगर में, यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहा-भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के कितने लोकपाल कहे गए हैं ? हे गौतम ! उसके चार लोकपाल कहे गए हैं । वे इस प्रकार हैं-सोम, यम, वैश्रमण और वरुण।
भगवन् ! इन लोकपालों के कितने विमान कहे गए हैं ? गौतम ! इनके चार विमान हैं; वे इस प्रकार हैं-सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु और सुवल्गु।
भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज का सुमन नामक महाविमान कहाँ है ? गौतम! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर-पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल से, यावत् ईशान नामक कल्प कहा है। उसमें यावत् पाँच अवतंसक कहे हैं, वे इस प्रकार हैं-अंकावतंसक, स्फटिकावतंसक, रत्नावतंसक और जातरूपावतंसक; इन चारों अवतंसकों के मध्य में ईशानावतंसक है । उस ईशानावतंसक नामक महाविमान से पूर्व में तीरछे असंख्येय हजार योजन आगे जाने पर देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज का सुमन नामक महाविमान है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई साढ़े बारह लाख योजन है । इत्यादि तृतीय शतक में कथित शक्रेन्द्र (के लोकपाल सोम के महाविमान) के समान ईशानेन्द्र (के लोकपाल सोम के महाविमान) के सम्बन्ध में यावत्-अर्चनिका समाप्ति पर्यन्त कहना।।
इस प्रकार चारों लोकपालों में से प्रत्येक के विमान की वक्तव्यता पूरी हो वहाँ एक-एक उद्देशक समझना । चारों विमानों की वक्तव्यता में चार उद्देशक पूर्ण हुए समझना । विशेष यह है कि इनकी स्थिति में अन्तर है। सूत्र-२०९
आदि के दो-सोम और यम लोकपाल की स्थिति (आय) त्रिभागन्यून दो-दो पल्योपम की है, वैश्रमण की स्थिति दो पल्योपम की है और वरुण की स्थिति त्रिभागसहित दो पल्योपम की है। अपत्यरूप देवों की स्थिति एक पल्योपम की है।
शतक-४ - उद्देशक-५ से८ सूत्र-२१० चारों लोकपालों की राजधानीयोंके चार उद्देशक कहने चाहिए यावत् वरुण महाराज इतनी महाऋद्धि वाले हैं
शतक-४ - उद्देशक-९ सूत्र-२११
भगवन् ! जो नैरयिक है, क्या वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है, या जो अनैरयिक है, वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? (हे गौतम !) प्रज्ञापनासूत्र में कथित लेश्यापद का तृतीय उद्देशक यहाँ कहना चाहिए, और वह यावत् ज्ञानों के वर्णन तक कहना चाहिए।
शतक-४ - उद्देशक-१० सूत्र-२१२
भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या का संयोग पाकर तद्रुप और तद्वर्ण में परिणत हो जाती है ? (हे गौतम !) प्रज्ञापनासूत्र में उक्त लेश्यापद का चतुर्थ उद्देशक यहाँ कहना चाहिए, और वह यावत् परिणाम इत्यादि द्वार-गाथा तक कहना चाहिए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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