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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक अन्यथाभाव से जानता-देखता है। भगवन् ! मायी, मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार अपनी वीर्यलब्धि से, वैक्रियलब्धि से और विभंगज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी और राजगृह नगर के बीचमें एक बड़े जनपद-वर्ग की विकुर्वणा करे और वैसा करके क्या उस बड़े जनपद वर्ग को जानता और देखता है ? हाँ, गौतम ! वह जानता और देखता है । भगवन् ! क्या वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से जानता-देखता है, अथवा अन्यथाभाव से ? गौतम ! वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से नहीं जानता-देखता; किन्तु अन्यथाभाव से जानता-देखता है । भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम ! उस अनगार के मन में ऐसा विचार होता है कि यह वाराणसी नगरी है, यह राजगृह नगर है । तथा इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपदवर्ग है । परन्तु यह मेरे वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि या विभंग-ज्ञानलब्धि नहीं है; और न ही मेरे द्वारा उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत यह ऋद्धि, द्युति, यश, बल और पुरुष-कार पराक्रम हैं । इस प्रकार का उक्त अनगार का दर्शन विपरीत होता है। इस कारण से,यावत वह अन्यथाभाव से जानता-देखता है।
भगवन ! वाराणसी नगरी में रहा हआ अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार, अपनी वीर्यलब्धि से, वैक्रिय लब्धि से और अवधिज्ञानलब्धि से राजगृह नगर की विकुर्वणा करके (तद्गत) रूपों को जानता-देखता है ? हाँ, जानता-देखता है । भगवन् ! वह उन रूपों को तथाभाव से जानता-देखता है, अथवा अन्यथाभाव से ? गौतम ! वह उन रूपों को तथाभाव से जानता-देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता-देखता । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! उस अनगार के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि वाराणसी नगरी में रहा हुआ मैं राजगृहनगर की विकुर्वणा करके वाराणसी के रूपों को जानता-देखता हूँ। इस प्रकार उसका दर्शन अविपरीत होता है । हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है (कि वह तथाभाव से जानता-देखता है ।) दूसरा आलापक भी इसी तरह कहना चाहिए । किन्तु विशेष यह है कि विकुर्वणा वाराणसी नगरी की समझनी चाहिए, और राजगृह नगर में रहकर रूपों को जानता-देखता है। सूत्र - १९२
भगवन् ! अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार, अपनी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि से, राजगृहनगर और वाराणसी नगरी के बीच में एक बड़े जनपदवर्ग को जानता-देखता है?
हाँ (गौतम ! उस जनपदवर्ग को) जानता-देखता है । भगवन् ! क्या वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से जानता और देखता है, अथवा अन्यथाभाव से ? गौतम! वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से जानता और देखता है, परन्तु अन्यथाभाव से जानता-देखता । भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम ! उस अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार के मन में ऐसा विचार होता है कि न तो यह राजगृह नगर है, और न यह वाराणसी नगरी है, तथा न ही इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपदवर्ग है, किन्तु यह मेरी ही वीर्यलब्धि है, वैक्रियलब्धि है और अवधिज्ञानलब्धि है; तथा यह मेरे द्वारा उपलब्ध, प्राप्त एवं अभि-मुखसमागत ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम है । उसका यह दर्शन अविपरीत होता है । इसी कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वह अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार तथाभाव से जानता-देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता-देखता । भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना, एक बड़े ग्रामरूप की, नगररूप की, यावत्-सन्निवेश के रूप की विकुर्वणा कर सकता है ? इसी प्रकार दूसरा आलापक भी कहना चाहिए, किन्तु इसमें विशेष यह है कि बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके वह अनगार, उस प्रकार के रूपों की विकुर्वणा कर सकता है । भगवन् ! भावितात्मा अनगार, कितने ग्रामरूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? गौतम ! जैसे युवक युवती का हाथ अपने हाथ से दृढ़तापूर्वक पकड़ कर चलता है, इस पूर्वोक्त दृष्टान्तपूर्वक समग्र वर्णन यावत्-यह उसका केवल विकुर्वण-सामर्थ्य है, मात्र विषयसामर्थ्य है, किन्तु इतने रूपों की विकुर्वणा कभी की नहीं, इसी तरह से यावत् सन्निवेशरूपों पर्यन्त कहना।
भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र के कितने हजार आत्मरक्षक देव हैं ? गौतम ! दो लाख छप्पन हजार आत्मरक्षक देव हैं । यहाँ आत्मरक्षक देवों का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र अनुसार समझना । सभी इन्द्रों में से जिस इन्द्र के जितने आत्मरक्षक देव हैं, उन सबका वर्णन यहाँ करना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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