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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक / शतकशतक / उद्देशक / सूत्रांक गया । यहाँ बीच का सारा वर्णन तामलीतापस की तरह (पूर्ववत्) यावत् वह भी बेभेल सन्निवेश के बीचोंबीच होकर नकला। उसने पादुका और कुण्डी आदि उपकरणों को तथा चार खानों वाले काष्ठपात्र को एकान्त प्रदेश में छोड़ दिया। फिर बिभेल सन्निवेश के अग्निकोण में अर्द्धनिर्वर्तनिक मण्डल रेखा खींचकर बनाया अथवा प्रति लेखितप्रमार्जित किया । यों मण्डल बनाकर उसने संलेखना की जूषणा (आराधना) से अपनी आत्मा को सेवित किया । फिर यावज्जीवन आहार-पानी का प्रत्याख्यान करके पूरण बालतपस्वी ने पादपोपगमन अनशन (संथारा) स्वीकार किया ।
हे गौतम उस काल और उस समय में मैं छद्मस्थ अवस्था में था मेरा दीक्षापर्याय ग्यारह वर्ष का था। उस समय मैं निरन्तर छट्ठ-छट्ठ तप करता हुआ, संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूर्वानुपूर्वी से विचरण करता हुआ, ग्रामानुग्राम घूमता हुआ, जहाँ सुंसुमारपुर नगर था, और जहाँ अशोकवनषण्ड नामक उद्यान था, वहाँ श्रेष्ठ अशोक के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक के पास आया । मैंने उस समय अशोकतरु के नीचे स्थित पृथ्वीशिलापट्टक पर अट्ठमभक्त तप ग्रहण किया। मैंने दोनों पैरों को परस्पर इकट्ठा कर लिया। दोनों हाथों को नीचे की ओर लटकाए हुए सिर्फ एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर कर निर्निमेषनेत्र शरीर के अग्रभाग को कुछ झुकाकर, यथावस्थित गात्रों से एवं समस्त इन्द्रियों को गुप्त करके एकरात्रिकी महा (भिक्षु) प्रतिमा को अंगीकार करके कायोत्सर्ग किया। उस काल और उस समय में चमरचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहित रहित थी ( इधर पूरण नामक बालतपस्वी पूरे बारह वर्ष तक ( दानामा) प्रव्रज्या पर्याय का पालन करके, एकमासिक संलेखना की आराधना से अपनी आत्मा को सेवित करके, साठ भक्त अनशन रखकर, मृत्यु के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके चमरचंचा राजधानी की उपपातसभा में यावत् इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ । उस समय तत्काल उत्पन्न हुआ असुरेन्द्र असुर-राज चमर पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्ति भाव को प्राप्त हुआ । वे पाँच पर्याप्तियाँ इस प्रकार है- आहार-पर्याप्ति से यावत् भाषामनः पर्याप्ति तक ।
जब असुरेन्द्र असुरराज चमर पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त हो गया, तब उसने स्वाभाविक रूप से ऊपर सौधर्मकल्प तक अवधिज्ञान का उपयोग किया । वहाँ उसने देवेन्द्र देवराज, मघवा, पाकशासन, शतऋतु, सहस्राक्ष, वस्त्रापाणि, पुरन्दर शक्र को यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रकाशित करते हुए देखा । सौधर्मकल्प में । सौधर्मावतंसक विमान में शक्र नामक सिंहासन पर बैठकर, यावत् दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करते हुए देखा इसे देखकर चमरेन्द्र के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, प्रार्थित एवं मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ कि अरे ! कौन यह अप्रार्थित-प्रार्थक, दूर तक निकृष्ट लक्षण वाला तथा लज्जा और शोभा से रहित, हीनपुण्या चतुर्दशी को जन्म हुआ है, जो मुझे इस प्रकार की इस दिव्य देव ऋद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव लब्ध प्राप्त और अभिमुख समानीत होने पर भी मेरे ऊपर उत्सुकता से रहित होकर दिव्य एवं भोगों का उपभोग करता हुआ विचर रहा है ? इस प्रकार का आत्मस्फुरण करके चमरेन्द्र ने अपनी सामानिक परीषद् में उत्पन्न देवों को बुलाया और उनसे कहा- हे देवानुप्रियो | यह बताओ कि यह कौन अनिष्ट यावत् दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है?
असुरेन्द्र असुरराज चमर द्वारा सामानिक परीषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहे जाने पर वे चित्त में अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुए। यावत् हृदय से हृत-प्रभावित होकर उनका हृदय खिल उठा। दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को एकत्रित करके शिरसावर्त्तसहित मस्तक पर अंजलि करके उन्होंने चमरेन्द्र को जय-विजय शब्दों से बधाई दी । फिर वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! यह तो देवेन्द्र देवराज शक्र है, जो यावत् दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है ! तत्पश्चात् उन सामानिक परीषद् में उत्पन्न देवों से इस बात को सूनकर मन में अवधारण करके वह असुरेन्द्र असुरराज चमर शीघ्र ही क्रुद्ध, रुष्ट, कुपित एवं चण्ड- रौद्र आकृतियुक्त हुआ, और क्रोधावेश में आकर बड़बड़ाने लगा । फिर उसने सामानिक परीषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहा- अरे ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र कोई दूसरा है, और यह असुरेन्द्र असुरराज चमर कोई दूसरा है देवेन्द्र देवराज शक्र तो महा ऋद्धि वाला है, जबकि असुरेन्द्र असुरराज चमर अल्पऋद्धि वाला ही है, अतः हे देवानुप्रियो ! मैं चाहता हूँ कि मैं स्वयमेव उस देवेन्द्र देवराज शक्र को उसके स्वरूप से भ्रष्ट कर दूँ । यों कहकर वह चमरेन्द्र (कोपवश) गर्म हो गया, गर्मागर्म हो उठा ।
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती )" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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