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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक आदर करते हैं, मुझे स्वामी रूप में मानते हैं, मेरा सत्कार-सम्मान करते हैं, मुझे कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, और चैत्यरूप मानकर विनयपूर्वक मेरी पर्युपासना करते हैं; तब तक (मुझे अपना कल्याण कर लेना चाहिए ।) यही मेर लिए श्रेयस्कर है।
अतः रात्रि के व्यतीत होने पर प्रभात होते ही यावत् जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर मैं स्वयं अपने हाथ से काष्ठपात्र बनाऊं और पर्याप्त अशन, पान, खादिम और स्वादिमरूप चारों प्रकार का आहार तैयार कराकर, अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन-सम्बन्धी तथा दास-दासी आदि परिजनों को आमंत्रित करके उन्हें सम्मानपूर्वक अशनादि चारों प्रकार के आहार का भोजन कराऊं; फिर वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, माला और आभूषण आदि द्वारा उनका सत्कार-सम्मान करके उन्हीं मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन-सम्बन्धी और परिजनों के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करके, उन मित्र-ज्ञातिजन-स्वजन-परिजनादि तथा अपने ज्येष्ठपुत्र से पूछकर, मैं स्वयमेव काष्ठ पात्र लेकर एवं मुण्डित होकर प्रणामा नाम की प्रव्रज्या अंगीकार करूँ और प्रव्रजित होते ही मैं इस प्रकार का अभिग्रह धारण करूँ कि मैं जीवनभर निरन्तर छ?-छ? तपश्चरण करूँगा और सूर्य के सम्मुख दोनों भुजाएं ऊंची करके आतापना भूमि में आतापना लेता हुआ रहूँगा और छट्ठ के पारणे के दिन आतापनाभूमि से नीचे ऊतरकर स्वयं काष्ठपात्र हाथमें लेकर ताम्रलिप्ती नगरी के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय में भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करके भिक्षाविधि द्वारा शुद्ध ओदन लाऊंगा और उसे २१ बार धोकर खाऊंगा । इस प्रकार तामली गृहपति ने शुभ विचार किया।
इस प्रकार का विचार करके रात्रि व्यतीत होते ही प्रभात होने पर यावत् तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर स्वयमेव लकड़ी का पात्र बनाया । फिर अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप आहार तैयार करवाया । उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त किया, शुद्ध और उत्तम वस्त्रों को ठीक-से पहने, और अल्पभार तथा बहुमूल्य आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया । भोजन के समय वह भोजन मण्डप में आकर शुभासन पर सुखपूर्वक बैठा । इसके बाद मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन सम्बन्धी एवं परिजन आदि के साथ उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप आहार का आस्वादन करता हआ, विशेष स्वाद लेता हआ, दूसरों को परोसता हुआ भोजन कराता हुआ और स्वयं भोजन करता हुआ तामली गृहपति विहरण कर रहा था।
भोजन करने के बाद उसने पानी से हाथ धोए और चुल्लू में पानी लेकर शीघ्र आचमन किया, मुख साफ करके स्वच्छ हुआ। फिर उन सब मित्र-ज्ञाति-स्वजन-परिजनादि का विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र,
गन्धित द्रव्य, माला, अलंकार आदि से सत्कार-सम्मान किया । फिर उन्हीं के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित किया । उन्हीं मित्र-स्वजन आदि तथा अपने ज्येष्ठ पुत्र को पूछकर और मुण्डित होकर प्रणामा नामकी प्रव्रज्या अंगीकार की और अभिग्रह ग्रहण किया-आज से मेरा कल्प यह होगा कि मैं आजीवन निरन्तर छटु-छट्र तप करूँगा, यावत् पूर्वकथितानुसार भिक्षाविधि से केवल भात लाकर उन्हें २१ बार पानी से धोकर उनका आहार करूँगा । इस प्रकार अभिग्रह धारण करके वह तामली तापस यावज्जीवन निरन्तर बेले-बेले तप करके दोनों भुजाएं ऊंची करके आतापनाभूमि में सूर्य के सम्मुख आतापना लेता हुआ विचरण करने लगा । बेले के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरकर स्वयं काष्ठपात्र लेकर ताम्रलिप्ती नगरी में ऊंच, नीच और मध्यम कुलों के गृह-समुदाय से विधिपूर्वक भिक्षा के लिए घूमता था । भिक्षा में वह केवल भात लाता और उन्हें २१ बार पानी से धोता था, तत्पश्चात् आहार करता था।
भगवन् ! तामली द्वारा ग्रहण की हुई प्रव्रज्या प्राणामा कहलाती है, इसका क्या कारण है ? हे गौतम ! प्राणामा प्रव्रज्या में प्रव्रजित होने पर वह व्यक्ति जिसे जहाँ देखता है, (उसे वहीं प्रणाम करता है ।) (अर्थात्-) इन्द्र को, स्कन्द को, रुद्र को, शिव को, वैश्रमण को, आर्या को, रौद्ररूपा चण्डिका को, राजा को, यावत् सार्थवाह को, अथवा कौआ, कुत्ता और श्वपाक (आदि सबको प्रणाम करता है ।) इनमें से उच्च व्यक्ति को देखता है, उच्च-रीति से प्रणाम करता है, नीच को देखकर नीची रीति से प्रणाम करता है । इस कारण हे गौतम ! इस प्रव्रज्या का नाम प्राणामा प्रव्रज्या है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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