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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र में कथित सूर्यकान्त राजकुमार के समान यावत् वह राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, कठोर, पुर, अन्तः पुर और जनपद का स्वयमेव निरीक्षण करता हुआ रहता था।
तदनन्तर एक दिन राजा शिव को रात्रि के पीछले प्रहर में राज्य की धूरा-का विचार करते हुए ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि यह मेरे पूर्व-पुण्यों का प्रभाव है, इत्यादि तामलि-तापस के वृत्तान्त के अनुसार विचार हुआयावत् मैं पुत्र, पशु, राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, कोष्ठागार, पूर और अन्तःपुर इत्यादि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ। प्रचुर धन, कनक, रत्न यावत् सारभूत द्रव्य द्वारा अतीव अभिवृद्धि पा रहा हूँ। तो क्या मैं पूर्वपुण्यों के फल-स्वरूप यावत् एकान्तसुख का उपयोग करता हुआ विचरण करूँ ? अतः जब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि जब तक मैं हिरण्य आदि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ, यावत् जब तक सामान्त राजा आदि भी मेरे वश में हैं तब तक कल प्रभात होते ही जाज्वल्यमान सर्योदय होने पर मैं बहत-सी लोढी, लोहे की कडाही, कडछी और ताम्बे के बहत से तापसोचित उपकरण बनवाऊं और शिवभद्र कुमार को राज्य पर स्थापित करके और पूर्वोक्त बहुत-से लोहे एवं ताम्बे के तापसोचित भांड-उपकरण लेकर, उन तापसों के पास जाऊं जो ये गंगातट पर वानप्रस्थ तापस हैं; जैसे किअग्निहोत्री, पोतिक कौत्रिक याज्ञिक, श्राद्धी, खप्परधारी, कुण्डिकाधारी श्रमण, दन्त-प्रक्षालक, सम्मज्जक, निमज्जक, सम्प्रक्षालक, ऊर्ध्वकण्डुक, अधःकण्डुक, दक्षिणकूलक, उत्तरकूलक, शंखधमक, कूलधमक, मृगलुब्धक, हस्तीतापस, जल से स्नान किये बिना भोजन नहीं करने वाले, पानी में रहने वाले, वायु में रहने वाले, पटमण्डप में रहने वाले, बिलवासी, वृक्षमूलवासी, जलभक्षक, वायुभक्षक, शैवालभक्षक, मूलाहारी, कन्दाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, फलाहारी, बीजाहारी, सड़कर टूटे या गिरे हुए कन्द, मूल, छाल, पत्ते, फूल और फल खाने वाले, दण्ड ऊंचा रखकर चलने वाले, वृक्षमूलनिवासी, मांडलिक, वनवासी, दिशाप्रोक्षी, आतापना से पंचाग्नि ताप तपने वाले इत्यादि औपपातिक सूत्र अनुसार यावत् अपने शरीर को काष्ठ-सा बना देते हैं। उनमें से जो तापस दिशाप्रोक्षक हैं, उनके पास मुण्डित होकर मैं दिक्प्रोक्षक-तापस-रूप प्रव्रज्या अंगीकार करूँ। प्रव्रजित होने पर इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण करूँ कि यावज्जीवन निरन्तर छठ-छठ की तपस्या द्वारा दिक्चक्रवाल तपःकर्म करके दोनों भुजाएं ऊंची रखकर रहना मेरे लिए कल्पनीय है । फिर दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर अनेक प्रकार की लोढ़ियाँ, लोहे की कड़ाही आदि तापसोचित भण्डोपकरण तैयार कराके कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया 3 ही हस्तिनापुर नगर के बाहर औ भीतर जल का छिड़काव करके स्वच्छ कराओ, इत्यादि; यावत् कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की आज्ञानुसार कार्य करवा कर निवेदन किया।
उसके पश्चात् उस शिव राजा ने दूसरी बार भी कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और फिर उनसे कहा- हे देवानुप्रियो ! शिवभद्रकुमार के महार्थ, महामूल्यवान और महोत्सव योग्य विपुल राज्याभिषेक की शीघ्र तैयारी करो। तदनन्तर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा के आदेशानुसार राज्याभिषेक की तैयारी की । यह हो जाने पर शिव राजा ने अनेक गणनायक, दण्डनायक यावत् सन्धिपाल आदि राज्यपुरुष-परिवार से युक्त होकर शिवभद्रकुमार को पूर्व दिशा की ओर मुख करके श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन किया । फिर एक सौ आठ सोने के कलशों से, यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, समस्त ऋद्धि के साथ यावत् बाजों के महानिनाद के साथ राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया । तदनन्तर अत्यन्त कोमल सुगन्धित गन्धकाषायवस्त्र से उसके शरीर को पोंछा । फिर सरस गोशीर्षचन्दन का लेप किया; इत्यादि, जिस प्रकार जमालि को अलंकार से विभूषित करने का वर्णन है, उसी प्रकार शिवभद्र कुमार को भी यावत् कल्पवृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित किया । इसके पश्चात् हाथ जोड़कर यावत् शिव-भद्रकुमार को जयविजय शब्दों से बधाया और औपपातिक सूत्र में वर्णित कोणिक राजा के प्रकरणानुसार-इष्ट, कान्त एवं प्रिय शब्दों द्वारा आशीर्वाद दिया, यावत् कहा कि तुम परम आयुष्मान् हो और इष्ट जनों से युक्त होकर हस्तिनापुर नगर तथा अन्य बहुत-से ग्राम, आकर, नगर आदि के, यावत् परिवार, राज्य और राष्ट्र आदि के स्वामित्व का उपभोग करते हुए विचरो; इत्यादि कहकर जय-जय शब्द का प्रयोग किया । अब वह शिवभद्रकुमार राजा बन गया । वह महाहिमवान् पर्वत के समान राजाओं में प्रधान होकर विचरण करने लगा।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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