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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और पूछा
भगवन् ! क्या असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? इत्यादि प्रश्न । पूर्वकथित त्रायस्त्रिंशक देवों का वृत्तान्त कहना यावत् वे ही चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हुए। भगवन् ! जब से वे त्रायस्त्रिंशक देवरूप में उत्पन्न हुए हैं क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं; असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव के नाम शाश्वत कहे गए हैं । इसलिए किसी समय नहीं थे, या नहीं हैं, ऐसा नहीं है और कभी नहीं रहेंगे, ऐसा भी नहीं है । यावत् अव्युच्छित्ति नय की अपेक्षा से वे नित्य हैं, पहले वाले च्यवते हैं और दूसरे उत्पन्न होते हैं
भगवन् ! वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में बिभेल नामक एक सन्निवेश था । उस बिभेल सन्निवेश में परस्पर सहायक तैंतीस गृहस्थ श्रमणोपासक थे; इत्यादि वर्णन चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिंशकों के समान ही जानना, यावत् वे त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हुए । शेष पूर्ववत् । वे अव्युच्छिति-नय की अपेक्षा नित्य हैं । पुराने च्यवते रहते हैं, दूसरे उत्पन्न होते रहते हैं।
भगवन् ! क्या नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? गौतम ! नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के त्रायस्त्रिंशक देवों के नाम शाश्वत कहे गए हैं। वे किसी समय नहीं थे, ऐसा नहीं है; नहीं रहेंगे-ऐसा भी नहीं; यावत् पुराने च्यवते हैं और नए उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार भूतानन्द इन्द्र, यावत् महाघोष इन्द्र के त्रायस्त्रिंशक देवों के विषय में जानना।
भगवन् ! क्या देवराज देवेन्द्र शक्र के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न । हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के, भारतवर्ष में पलाशक सन्निवेश था । उस सन्निवेश में परस्पर सहायक तैंतीस गृहपति श्रमणोपासक रहते थे, इत्यादि सब वर्णन चमरेन्द्र के त्राय-स्त्रिंशकों के अनुसार करना, यावत् विचरण करते थे। वे तैंतीस परस्पर सहायक गृहस्थ श्रमणोपासक पहले भी और पीछे भी उग्र, उग्रविहारी एवं संविग्न तथा संविग्नविहारी होकर बहुत वर्षों तक श्रमणोपासकपर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना से शरीर को कृश करके, साठ भक्त का अनशन द्वारा छेदन करके, अन्तमें आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल के अवसर पर समाधिपूर्वक काल करके यावत् शक्र के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हुए। भगवन् ! जब से वे बालाक निवासी परस्पर सहायक गृहपति श्रमणोपासक शक्र के त्रायस्त्रिंशकों रूप में उत्पन्न हुए, क्या तभी से शक्र के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न समग्र वर्णन पुराने च्यवते हैं और नए उत्पन्न होते हैं; तक चमरेन्द्र समान करना।
भगवन् ! ईशान के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न का उत्तर शक्रेन्द्र के समान जानना चाहिए । इतना विशेष है कि ये चम्पानगरी के निवासी थे, यावत् ईशानेन्द्र के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हुए । जब से ये चम्पानगरी निवासी तैंतीस परस्पर सहायक श्रमणोपासक त्रायस्त्रिंशक बने, इत्यादि शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् पुराने च्यवते हैं और नये उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! क्या देवराज देवेन्द्र सनत्कुमार के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? इत्यादि समग्र प्रश्न तथा उसके उत्तर में जैसे धरणेन्द्र के विषय में कहा है, उसी प्रकार कहना चाहिए । इसी प्रकार प्राणत और अच्युतेन्द्र के त्रायस्त्रिंशक देवों के सम्बन्ध में भी कि पुराने च्यवते हैं और नये उत्पन्न होते हैं, तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१० - उद्देशक-५ सूत्र-४८८
उस काल और समय में राजगृह नामक नगर था । वहाँ गुणशीलक नामक उद्यान था । यावत् परीषद् लौट गई । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के बहुत-से अन्तेवासी स्थविर भगवान जातिसम्पन्न... इत्यादि विशेषणों से युक्त थे, आठवें शतक के सप्तम उद्देशक के अनुसार अनेक विशिष्ट गुणसम्पन्न, यावत् विचरण करते थे । एक बार उन स्थविरों (के मन) में श्रद्धा और शंका उत्पन्न हुई । अतः उन्होंने गौतमस्वामी की तरह, यावत्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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