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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक अन्य त्रसप्राणियों को भी मारता है । गौतम ! वह उस त्रसप्राणी को भी मारता है और अन्य त्रसप्राणियों को भी मारता है। भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि वह पुरुष उस त्रसजीव को भी मारता है और अन्य त्रसजीवों को भी मार देता है । गौतम ! उस त्रसजीव को मारने वाले पुरुष के मन में ऐसा विचार होता है कि मैं उसी त्रसजीव को मार रहा हूँ, किन्तु वह उस त्रसजीव को मारता हुआ, उसके सिवाय अन्य अनेक त्रसजीवों को भी मारता है । इसलिए, हे गौतम ! ऐसा कहा है।
भगवन् ! कोई पुरुष ऋषि को मारता हुआ क्या ऋषि को ही मारता है, अथवा नोऋषि को भारता है ? गौतम ! वह ऋषि को भारता है, नोऋषि को भी मारता है । भगवन ऐसा कहने का क्या कारण है ? गौतम ! ऋषि को मारने वाले उस पुरुष के मन में ऐसा विचार होता है कि मैं एक ऋषि को मारता हूँ; किन्तु वह एक ऋषि को मारता हुआ अनन्त जीवों को मारता है । इस कारण है गौतम ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है।
भगवन् ! पुरुष को मारता हुआ कोई भी व्यक्ति क्या पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है, अथवा नोपुरुष-वैर से स्पष्ट भी होता है ? गौतम ! वह व्यक्ति नियम से परुषुवैर से स्पष्ट होता ही है । अथवा पुरुषवैर से और नोपुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, अथवा पुरुषवैर से और नोपुरुषवैरों से स्पृष्ट होता है । इसी प्रकार अश्व से लेकर यावत् चित्रल के विषय में भी जानना चाहिए; यावत् अथवा चित्रलवैर से और नोचित्रलवैरों से स्पृष्ट होता है। भगवन् ! ऋषि को मारता हुआ कोई षुरुष क्या ऋषिवैर से स्पृष्ट होता है, या नोऋषिवैर से स्पृष्ट होता है ? गौतम ! वह नियम से ऋषिवैर और नोऋषिवैरों से स्पृष्ट होता है। सूत्र - ४७२
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है ? हाँ, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव को यावत् श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? हाँ, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव को ग्रहण करता और छोड़ता है। इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव को भी यावत् ग्रहण करता और छोड़ता है।
भगवन् ! अप्कायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को आभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करते और छोडते हैं ? गौतम ! पूर्वोक्तरूप से जानना चाहिए । भगवन् ! अप्कायिक जीव, अप्कायिक जीव को आभ्यन्तर एव बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? (हाँ, गौतम !) पूर्वोक्तरूप से जानना चाहिए । इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक के विषय में भी जानना चाहिए।
मगवन् ! तेजस्कायिक जीव पृथ्वीकायिकजीवों को आभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? (गौतम!) यह सब पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिए।
भगवन् पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को आभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए कितनी क्रिया वाले होत है ? गौतम ! कदाचित् तीन क्रियावाले, कदाचित् चार क्रियावाले और कदाचित् पांच क्रियावाले होते है | भगवन् ! पृथ्वीकायिका जीव, अप्कायिक जीवों को आभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासाच्छवास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए कितनी क्रिया वाले होते हैं ? हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना । इसी प्रकार अप्कायिक जीवों के साथ, तथा इसी प्रकार तेजस्कायिक जीवो के साथ तथा इसी प्रकार ही वायुकायिकजीवों के साथ भी पृथ्वीकायिक आदि का कथन करना।
भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए कितनी क्रिया वाले होते है ? गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले
और कदाचित् पांच क्रियावाले होते हैं। सूत्र-४७३
भगवन् ! वायुकायिक जीव, वृक्ष के मूल को कंपाते हुरए और गिराते हुए कितनी क्रिया वाले होते है ? गौतम!
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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