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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1
शतक/शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक असख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन तक जानता और देखता है, वह जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है । वह पाषण्डस्थ, सारम्भी, सपरिग्रह और संक्लेश पाते हए जीवों को भी जानता है और विशुद्ध होते हुए जीवों को भी जानता है । (तत्पश्चात्) वह सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, फिर श्रमणधर्म पर रुचि करता है, फिर चारित्र अंगीकार करता है । फिर लिंग स्वीकार करता है । तब उस के मिथ्यात्व के पर्याय क्रमशः क्षीण होते-होते और सम्यग्दर्शन के पर्याय क्रमशः बढ़ते-बढ़ते वह विभंग नामक अज्ञान, सम्यक्त्व-युक्त होता है और शीघ्र ही अवधि (ज्ञान) के रूप में परिवर्तित हो जाता है। सूत्र - ४४७
भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितनी लेश्याओं में होता है ? गौतम ! वह तीन विशुद्धलेश्याओं में होता है, यथातेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितने ज्ञानों में होता है ? गौतम ! वह आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, इन तीन ज्ञानों में होता है।
भगवन् ! वह सयोगी होता है, या अयोगी ? गौतम ! वह सयोगी होता है, अयोगी नहीं होता । भगवन् ! यदि वह सयोगी होता है, तो क्या मनोयोगी होता है, वचनयोगी होता है या काययोगी होता है ? गौतम! तीनो होते है।
भगवन् ! वह साकारोपयोग-युक्त होता है, अथवा अनाकारपयोग-युक्त होता है ? गौतम ! वह साकारोपयोगयुक्त भी होता हे और अनाकारोपयोग-युक्त भी होता है।
भगवन् ! वह किस संहनन में होता है ? गौतम ! वह वज्रऋषभनाराचसंहनन वाला होता है। भगवन् ! वह किस संस्थान में होता है ? गौतम ! वह छह संस्थानों में से किसी भी संस्थान में होता है।
भगवन् ! वह कितनी ऊंचाई वाला होता है ? गौतम ! वह जघन्य सात हाथ और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष ऊंचाई वाला होता है । भगवन् ! कितनी आयुष्य वाला होता है ? गौतम ! वह जघन्य साधिक आठ वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि
आयुष्यवाला होता है। भगवन् ! वह सवेदी होता है या अवेदी ? गौतम ! वह सवेदी होता है, अवेदी नहीं । भगवन् ! यदि वह सवेदी होता है तो क्या स्त्रीवेदी होता है, पुरुषवेदी होता है, नपुंसकवेदी होता है, या पुरुष नपुंसक वेदी होता है? गौतम! वह स्त्रीवेदी नहीं होता, पुरुषवेदी होता है, नपुंसकवेदी नहीं होता, किन्तु पुरुष नपुंसकवेदी होता है।
भगवन् ! क्या वह सकषायी होता है, या अकषायी ? गौतम ! वह सकषायी होता है, अकषायी नहीं । भगवन्! कषायी है, तो वह कितने कषायोंवाला है ? गौतम ! वह संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभः, से युक्त
वन् ! उसके कितने अध्यवसाय कहे हैं गौतम ! उसके असंख्यात अध्यवसाय कहे हैं। भगवन् ! उसके वे अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त होते हैं ? गौतम ! वे प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं होते हैं।
वह अवधिज्ञानी बढते हए प्रशस्त अध्यवसायों से अनन्त नैरयिकभव-ग्रहणों से, अनन्त तिर्यञ्चयोनिक भवों से, अनन्त मनुष्यभव-ग्रहणों से और अनन्त देवभवों से अपनी आत्मा को वियुक्त कर लेता है । जो ये नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति नामक चार उत्तर प्रकृतियाँ हैं, उन प्रकृतियों के आधारभूत अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ को क्षय करके अप्रत्याख्यान-क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करता है, फिर प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है; फिर संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है। फिर पंचविध ज्ञानावरणीयकर्म, नवविध दर्शनावरणीयकर्म, पंचविध अन्तरायकर्म को तथा मोहनीयकर्म को कटे हुए ताड़वृक्ष के समान बना कर, कर्मरज को बिखेरने वाले अपूर्वकरण में प्रविष्ट उस जीव के अनन्त, अनुत्तर, व्याघातरहित, आवरणरहित, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होता है। सूत्र -४४८
भगवन् ! वे असोच्चा केवली केवलिप्ररूपित धर्म कहते हैं, बतलाते हैं अथवा प्ररूपणा करते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । वे एक उदाहरण के अथवा एक प्रश्न के उत्तर के सिवाय अन्य उपदेश नहीं करते । भगवन् ! वे (किसी को) प्रव्रजित या मुण्डित करते हैं ? गौतम ! वह अर्थ समर्थ नहीं । किन्तु उपदेश करते हैं । भगवन् ! वे सिद्ध होते हैं, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ? हाँ, गौतम ! करते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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