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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक उपनिमंत्रण करे- आयुष्मन् श्रमण ! इन दो पिण्डों में से एक पिण्ड आप स्वयं खाना और दूसरा पिण्ड स्थविर मुनियों को देना । वह निर्ग्रन्थ श्रमण उन दोनों पिण्डों को ग्रहण कर ले और स्थविरों की गवेषणा करे । गवेषणा करने पर उन स्थविर मुनियों को जहाँ देखे, वहीं वह पिण्ड उन्हें दे दे । यदि गवेषणा करने पर भी स्थविर मुनि कहीं न दिखाई दें तो वह पिण्ड स्वयं न खाए और न ही दूसरे किसी श्रमण को दे, किन्तु एकान्त, अनापात, अचित्त या बहुप्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके वहाँ परिष्ठापन करे । गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने के विचार से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ तीन पिण्ड ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे-आयुष्मन् श्रमण ! एक पिण्ड आप स्वयं खाना और दो पिण्ड स्थविर श्रमणों को देना । वह निर्ग्रन्थ उन तीनों पिण्डों को ग्रहण कर ले । तत्पश्चात् वह स्थविरों की गवेषणा करे । शेष वर्णन पूर्ववत् । यावत् स्वयं न खाए, परिष्ठापन करे। गृहस्थ के घर में प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को यावत् दस पिण्डों को ग्रहण करने के लिए कोई गृहस्थ उपनिमंत्रण दे- आयुष्मन् श्रमण ! इनमें से एक पिण्ड आप स्वयं खाना और शेष नौ पिण्ड स्थविरों को देना; इत्यादि वर्णन पूर्ववत् ।।
निर्ग्रन्थ यावत् गृहपति-कुल में प्रवेश करे और कोई गृहस्थ उसे दो पात्र ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे'आयुष्मन् श्रमण ! एक पात्र का आप स्वयं उपयोग करना और दूसरा पात्र स्थविरों को दे देना। इस पर वह निर्ग्रन्थ उन दोनों पात्रों को ग्रहण कर ले । शेष वर्णन पूर्ववत् यावत् उस पात्र का न तो स्वयं उपयोग करे और न दूसरे साधुओं को दे; यावत् उसे परठ दे । इसी प्रकार तीन, चार यावत् दस पात्र तक का कथन पूर्वोक्त पिण्ड के समान कहना । पात्र के समान सम्बन्ध गुच्छक, रजोहरण, चोलपट्टक, कम्बल, लाठी, (दण्ड) और संस्तारक की वक्तव्यता कहना, यावत् दस संस्तारक ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे, यावत् परठ दे। सूत्र-४०७
गृहस्थ के घर आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्य स्थान का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि प्रथम मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा और गर्दा करूँ; (उसके अनुबन्ध का) छेदन करूँ, इस (पाप-दोष से) विशुद्ध बनूँ, पुनः ऐसा अकृत्य न करने के लिए अभ्युद्यत होऊं और यथोचित प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर लूँ । तत्पश्चात् स्थविरों के पास जाकर आलोचना करूँगा, यावत् प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर लूँगा, (ऐसा सोच के) वह निर्ग्रन्थ, स्थविर मुनियों के पास जाने के लिए रवाना हुआ; किन्तु स्थविर मुनियों के पास पहुँचने से पहले ही वे स्थविर मूक हो जाएं तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं । यावत् उनके पास पहुंचने से पूर्व ही वह निर्ग्रन्थ स्वयं मूक हो जाए, तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं।
(उपर्युक्त अकृत्यसेवी) निर्ग्रन्थ स्थविर मुनियों के पास आलोचनादि के लिए रवाना हुआ, किन्तु उसके पहुंचने से पूर्व ही वे स्थविर मुनि काल कर जाएं, तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं । भगवन् ! (उपर्युक्त अकृत्य-सेवन करके) वह निर्ग्रन्थ स्थविरों के पास आलोच-नादि करने के लिए नीकला, किन्तु वहाँ पहुँचा नहीं, उससे पूर्व ही स्वयं काल कर जाए तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं । उपर्युक्त अकृत्यसेवी निर्ग्रन्थ ने तत्क्षण आलोचनादि करके स्थविर मुनिवरों के पास आलोचनादि करने हेतु प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुँच गया, तत्पश्चात् वे स्थविर मुनि मूक हो जाएं, तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं । (उपर्युक्त अकृत्यसेवी मुनि) स्वयं आलोचनादि करके स्थविरों की सेवा में पहुँचते ही स्वयं मूक हो जाए, जिस प्रकार स्थविरों के पास न पहुँचे हुए निर्ग्रन्थ के चार आलापक कहे गए हैं, उसी प्रकार सम्प्राप्त निर्ग्रन्थ के भी चार आलापक कहना।
बाहर विचारभूमि (स्थण्डिलभूमि) अथवा विहारभूमि (स्वाध्यायभूमि) की ओर नीकले हुए निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन हो गया हो, तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि पहले मैं स्वयं यहीं इस अकृत्य की आलोचनादि करूँ, इत्यादि पूर्ववत् । यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से असम्प्राप्त और सम्प्राप्त दोनों के आठ आलापक
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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