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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक सबकी समानता के सम्बन्ध में पहले कहे अनुसार ही समझना। सूत्र - २९
भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही हैं ?' गौतम ! लेश्याएं छह कही गई हैं, वे इस प्रकार हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल । यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद का द्वीतिय उद्देशक ऋद्धि की वक्तव्यता तक कहना चाहिए। सूत्र-३०
भगवन् ! अतीतकाल में आदिष्ट-नारक आदि विशेषण-विशिष्ट जीव का संसार-संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! संसार-संस्थान-काल चार प्रकार का कहा गया है । वह इस प्रकार है-नैरयिकसंसारसंस्थानकाल, तिर्यंचसंसार-संस्थानकाल, मनुष्यसंसार-संस्थानकाल और देवसंसार-संस्थानकाल ।
भगवन् ! नैरयिकसंसार-संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार शन्यकाल, अशन्यकाल और मिश्रकाल । भगवन! तिर्यंचसंसार-संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार अशून्यकाल और मिश्रकाल ।
मनुष्यों और देवों के संसारसंस्थानकाल का कथन नारकों के समान समझना।
भगवन् ! नारकों के संसारसंस्थानकाल के जो तीन भेद हैं-शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल, इनमें से कौन किससे कम, बहुत, तुल्य, विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे कम अशून्यकाल है, उससे मिश्रकाल अनन्त गुणा है और उसकी अपेक्षा भी शून्यकाल अनन्तगुणा है। तिर्यंचसंसार-संस्थानकाल के दो भेदों में से सबसे कम अशून्यकाल है और उसकी अपेक्षा मिश्रकाल अनन्तगुणा है । मनुष्यों और देवों के संसारसंस्थानकाल का अल्प-बहुत्व नारकों के संसारसंस्थानकाल की न्यूनाधिकता के समान ही समझना चाहिए।
भगवन् ! नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, इन चारों के संसारसंस्थानकालों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़ा मनुष्यसंसार-संस्थानकाल है, उससे नैरयिक संसारसंस्थानकाल असंख्यातगुणा, उससे देव संसारसंस्थानकाल असंख्यातगुणा है और उससे तिर्यंचसंसारसंस्थानकाल अनन्तगुणा है सूत्र-३१
हे भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? गौतम! कोई जीव अन्तक्रिया करता है, कोई जीव नहीं करता। इस सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्र का अन्तक्रिया पद जान लेना। सूत्र-३२
भगवन् ! असंयतभव्यद्रव्यदेव, अखण्डित संयम वाला, खण्डित संयम वाला, अखण्डित संयमासंयम वाला, खण्डित संयमासंयम वाला, असंज्ञी, तापस, कान्दर्पिक, चरकपरिव्राजक, किल्बिषिक, तिर्यंच, आजीविक, आभियोगिक, दर्शन भ्रष्ट वेषधारी, ये देवलोक में उत्पन्न हों तो, किसका कहाँ उपपात होता है ? असंयतभव्यद्रव्य-देवों का उत्पाद जघन्यतः भवनवासियों में और उत्कृष्टतः ऊपर के ग्रैवयकों में है । अखण्डित संयम वालों का जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध में, खण्डित संयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में, अखण्डित संयमासंयम का जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में, खण्डित संयमा-संयम वालों का जघन्य भवनवासिययों में और उत्कृष्ट ज्योतिष्क देवों में, असंज्ञी जीवों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तर देवों में और शेष सबका उत्पाद जघन्य भवनवासियों में होता है, उत्कृष्ट उत्पाद तापसों ज्योतिष्कों में, कान्दर्पिकों सौधर्मकल्प में, चरकपरिव्राजकों ब्रह्मलोककल्प में, किल्विषिकों लान्तककल्प में, तिर्यंचों सहस्रारकल्प में, आजीविकों तथा आभियोगिकों अच्युतकल्प में, और श्रद्धाभ्रष्टवेषधारियों ग्रैवेयकों तक उत्पाद होता है। सूत्र - ३३
भगवन् ! असंज्ञी का आयुष्य कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! असंज्ञी का आयुष्य चार प्रकार का कहा गया है । वह इस प्रकार है-नैरयिक-असंज्ञी आयुष्य, तिर्यंच-असंज्ञी आयुष्य, मनुष्य-असंज्ञी आयुष्य और देवअसंज्ञी आयुष्य।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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