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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक
शतक-७ सत्र-३२७
आहार, विरती, स्थावर, जीव, पक्षी, आयुष्य, अनगार, छद्मस्थ, असंवृत्त और अन्यतीर्थिक; ये दश उद्देशक सातवे शतक में हैं।
शतक-७ - उद्देशक-१ सूत्र-३२८
उस काल और उस समय में, यावत् गौतमस्वामी ने पूछा-भगवन् ! (परभव में जाता हुआ) जीव किस समय में अनाहारक होता है ? गौतम ! (परभव में जाता हुआ) जीव, प्रथम समय में कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है; द्वीतिय समय में भी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है, तृतीय समय में भी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है; परन्तु चौथे समय में नियमतः आहारक होता है । इसी प्रकार नैरयिक आदि चौबीस ही दण्डकों में कहना । सामान्य जीव और एकेन्द्रिय ही चौथे समय में आहारक होते हैं। शेष जीव, तीसरे समय में आहारक होते हैं।
भगवन् ! जीव किस समय में सबसे अल्प आहारक होता है ? गौतम ! उत्पत्ति के प्रथम समय में अथवा भव के अन्तिम समयमें जीव सबसे अल्प आहारवाला होता है। इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त चौबीस ही दण्डकों में कहना। सूत्र - ३२९
भगवन् ! लोक का संस्थान किस प्रकार का है ? गौतम ! सुप्रतिष्ठिक के आकार का है। वह नीचे विस्तीर्ण है और यावत् ऊपर मृदंग के आकार का है । ऐसे इस शाश्वत लोक में उत्पन्न केवलज्ञान-दर्शन के धारक, अर्हन्त, जिन, केवली जीवों को भी जानते और देखते हैं तथा अजीवों को भी जानते और देखते हैं । इसके पश्चात् वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होते हैं, यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। सूत्र-३३०
भगवन् ! श्रमण के उपाश्रय में बैठे हुए सामायिक किये हुए श्रमणोपासक को क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? गौतम ! उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है, ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती। भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! श्रमणोपाश्रय में बैठे हए सामयिक किए हए श्रमणोपासक की आत्मा अधिकरणी होती है। जिसकी आत्मा अधिकरण का निमित्त होती है, उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है। हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा गया है। सूत्र-३३१
भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही त्रस-प्राणियों के समारम्भ का प्रत्याख्यान कर लिया हो, किन्तु पृथ्वीकाय के समारम्भ का प्रत्याख्यान नहीं किया हो, उस श्रमणोपासक से पृथ्वी खोदते हुए किसी त्रसजीव की हिंसा हो जाए, तो भगवन् ! क्या उसके व्रत (त्रसजीववध-प्रत्याख्यान) का उल्लंघन होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह त्रसजीव के अतिपात (वध) के लिए प्रवृत्त नहीं होता।
भगवन! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही वनस्पति के समारम्भ का प्रत्याख्यान किया हो. पथ्वी को खोदते हए किसी वक्ष का मल छिन्न हो जाए, तो भगवन ! क्या उसका व्रत भंग होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह श्रमणोपासक उस (वनस्पति) के अतिपात (वध) के लिए प्रवृत्त नहीं होता। सूत्र - ३३२
भगवन् ! तथारूप श्रमण और माहन को प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खादिम और स्वादिम द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को क्या लाभ होता है ? गौतम ! वह श्रमणोपासक तथारूप श्रमण या माहन को समाधि उत्पन्न करता है। उन्हें समाधि प्राप्त कराने वाला श्रमणोपासक उसी समाधि को स्वयं भी प्राप्त करता है। भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को यावत् प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक क्या त्याग (या संचय) करता है?
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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