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________________ आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक जानने चाहिए तथा उद्धार, परिणाम और सर्व जीवों का उत्पाद जानना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है। शतक-६ - उद्देशक-९ सूत्र-३१७ भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म को बाँधता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधता है ? गौतम ! सात प्रकृतियों को बाँधता है, आठ प्रकार को बाँधता है अथवा छह प्रकृतियों को बाँधता है । यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का बंधउद्देशक कहना चाहिए। सूत्र-३१८ भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महानभाग देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण वाले और एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! क्या वह देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! समर्थ है । भगवन् ! क्या वह देव इहगत पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है अथवा तत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है या अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? गौतम ! वह देव यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता, वह वहाँ के पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, किन्तु अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता । इस प्रकार इस गम द्वारा विकुर्वणा के चार भंग कहने चाहिए । एक वर्ण वाला और एक आकार वाला, एक वर्ण वाला और अनेक आकार वाला, अनेक वर्ण और एक आकार वाला तथा अनेक वर्ण वाला और अनेक आकार वाला। भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महानुभाग वाला देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना काले पुद्गल को नीले पुद्गल के रूप में और नीले पुद्गल को काले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; किन्तु बाहरी पुद्गलों को ग्रहण करके देव वैसा करने में समर्थ हैं । भगवन् ! वह देव इहगत, तत्रगत या अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा करने में समर्थ हैं ? गौतम ! वह इहगत और अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा नहीं कर सकता, किन्तु तत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा परिणत करने में समर्थ है। [विशेष यह है कि यहाँ विकुर्वित करने में के बदले) परिणत करने में कहना चाहिए । इसी प्रकार काले पुद्गल को लाल पुद्गल के रूप में यावत् काले पुद्गल के साथ शुक्ल पुद्गल तक समझना । इसी प्रकार नीले पुद्गल के साथ शुक्ल पुद्गल तक जानना । इसी प्रकार लाल पुद्गल को शुक्ल तक तथा इसी प्रकार पीले पुद्गल को शुक्ल तक (परिणत करने में समर्थ है।) इसी प्रकार इस क्रम के अनुसार गन्ध, रस और स्पर्श के विषय में भी समझना चाहिए । यथा-(यावत्) कर्कश स्पर्श वाले पुद्गल को मृदु स्पर्श वाले (पुद्गल में परिणत करने में समर्थ है) । इसी प्रकार दो-दो विरुद्ध गुणों को अर्थात् गुरु और लघु, शीत और उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष, वर्ण आदि को वह सर्वत्र परिणमाता है। परिणमाता है। इस क्रिया के साथ यहाँ इस प्रकार दो-दो आलापक कहने चाहिए, यथा-(१) पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमाता है, (२) पुदगलों को ग्रहण किये बिना नहीं परिणमाता। सूत्र-३१९ भगवन् ! क्या अविशुद्ध लेश्या वाला देव असमवहत-आत्मा से अविशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या अन्यतर को जानता और देखता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी तरह अविशुद्ध लेश्या वाला देव अनुपयुक्त आत्मा से विशुद्ध लेश्या वाले देव को, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? अविशुद्ध लेश्या वाला देव उपयुक्त आत्मा से अविशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? अविशुद्ध लेश्या वाला देव उपयुक्त आत्मा से विशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? अविशुद्ध लेश्या वाला देव उपयुक्तानुपयुक्त आत्मा से अविशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? अविशुद्ध लेश्या वाला देव अनुपयुक्तानुपयुक्त आत्मा से विशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? विशुद्ध लेश्या वाला देव मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 126
SR No.034671
Book TitleAgam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 05, & agam_bhagwati
File Size6 MB
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